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मंगलवार, जुलाई 30, 2013

ज़िन्दगी हारी नहीं ... (क्षणिकाएं)

एक होड़ सी मची है बिकने के वास्ते 
साँसों को समेटे हैं मरने के वास्ते, 
जिंदगी का ये तमाशा कितना अजीब है 
क्या क्या जतन हैं करते जीने के वास्ते !
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"रूह ने उसकी कहा मरघट से कल ये दोस्तों

उम्र ही हारी है मेरी ज़िन्दगी हारी नहीं" !!

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कश्ती भी नहीं बदली, दरिया भी नहीं बदला,
हम डूबने वालों का, जज्बा भी नहीं बदला,
है शौक–ए-सफ़र ऐसा कि, एक उम्र हुयी हमने,
मंजिल भी नहीं पाई, और रास्ता भी नहीं बदला …
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उनके पायलों की छनछनाहट 
मेरे दिल को झनझनाती हैं !
वो एक दिन राह से गुजरी थीं
राहें आज तक गुनगुनाती हैं !

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-- Prakash Govind 
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सोमवार, जुलाई 29, 2013

झूठ-फरेब, खुशफहमी, झूठा सच, अहसास (क्षणिकाएं)


झूठ-फरेब 
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एक दिन में कई बार 

जता ही देते हैं हम 

कितना खराब हो गया है समय 

मजा यह है कि बगैर झूठ-फरेब के 

एक दिन भी नहीं काट पाते !

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खुशफहमी
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घर की रस्मों से डर रही होगी

भीगी पलकें छुपा के आँचल में

वो मुझे याद कर रही होगी !

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झूठा सच
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रात सूरज था मेरे हाथों में

सुबह को सोचता हूँ किससे कहूँ
कौन आएगा मेरी बातों में !
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अहसास
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जिंदगी कट रही है कुछ जैसे

इम्तहाँ का रिजल्ट आने पर
कोई बच्चा उदास हो जैसे !
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-- प्रकाश गोविन्द
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क्षमा / किस्मत (दो क्षणिकाएं)

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मृत्यु को जन्म देकर
ईश्वर अपराधी है
इतनी जोरों से जियें हम दोनों
कि इश्वर के अँधेरे को
क्षमा कर सकें !!! 

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उस अपंग बच्चे को 
गए हम फूल दे आये 
दरवाजे पर रूककर, पलटकर देखा 
मानो देहरी से निकल 
अपने देवता को
उसी की किस्मत पर
छोड़ आये !!! 

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---- प्रकाश गोविन्द 

रविवार, जुलाई 28, 2013

बाजार/रिश्तेदारी/उम्मीद (तीन कवितायें )

बाजार
बाजार ही बाजार
हर शहर में
सामान से भरे हुए
चीजें ही चीजें दुकानों में
सारी ही चीजें
उस आदमी के वास्ते
जो नंगा-नंगा पैदा हुआ था !
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रिश्तेदारी
रिश्तेदारी भी टेलीफोन है आज 
सिक्के डालो तो बात होती है !!
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उम्मीद
 यहाँ रोटी नहीं, उम्मीद सबको जिन्दा रखती है
जो सड़कों पर भी सोते हैं सरहाने ख्वाब रखते हैं !
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-- प्रकाश गोविन्द 
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शनिवार, जुलाई 27, 2013

ईश्वर / मनुष्य / प्रकृति (तीन कवितायें )

ईश्वर
उसकी आँखें खुली समझ
उसके लिए एक नारियल फोड़ दो
एक बकरा काट दो,
उसकी आँखें बंद समझ
डंडी मार लो, बलात्कार कर लो
या गला रेत दो आदमी का
एक बड़ी सुविधा है ईश्वर !
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मनुष्य
'जब बहुमत नहीं
बहुसंख्य प्रकट होगा
व्यक्ति ताकतवर नहीं
भीड़ होगा तो,
जिस भी विजय यात्रा की
सवारी निकलेगी उस पर
चाहे देवता बैठा दो या राक्षस
उस सवारी को पत्थर ही ढोएंगे
मनुष्य लापता हो चुका होगा' !
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प्रकृति  
जल से बना होता है बादल 
जल देता है, 
फल से बना होता है वृक्ष 
फल देता है, 
ऊर्जा से बना होता है सूर्य 
प्रकाश देता है, 
किस चीज से बना होता है आदमी 
यह तय होना अभी बाकी है !
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-- प्रकाश गोविन्द 
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शुक्रवार, जुलाई 26, 2013

तरक्की / लड़कपन / माहौल (क्षणिकाएं)

तरक्की 
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बाबा रखते थे कदम
ड्योढ़ी के भीतर खांसकर
चाचियाँ बाहर निकलतीं
सर पे पल्लू ढांपकर
देखिये इस बार पीढ़ी
क्या तरक्की कर गई
अब चुने जाते हैं शौहर
कुछ दिनों तक जांचकर !

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लड़कपन
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लड़कपन में तुझे छूकर 
कुछ ऐसा मुस्कराया था 
कि जैसे जमाने भर के 
मैं कंचे जीत लाया था !!
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माहौल 
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कुछ ऐसी शै मिलाइए 
नफरत के खेल में 
इंसान प्यार करने लगे 
'होल-सेल' में !!!
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-- प्रकाश गोविन्द 
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गुरुवार, जुलाई 25, 2013

माँ का वजूद / कोई नहीं (कवितायें)

माँ का वजूद
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मैं माँ की बरसी पर 
फूलों को कैसे उठाऊंगा 
हाथों में फूल नहीं 
माँ का वजूद होगा !!
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कोई नहीं 
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दोस्त तो बहुत हैं पर
बुखार में तपते जिस्म के 
सिरहाने बैठ कर 
"मैं हूँ न"
कहने वाला कोई नहीं !

एक समोसे पे दिन गुजारते देख कर
हेल्थ पर लेक्चर देने वाले बहुत हैं पर
टिफिन में मेरी खातिर
एक एक्स्ट्रा पराठा और आचार
लाने वाला कोई नहीं !

सुबह-शाम
देश, समाज, धर्म, संस्कृति,
की दुहाई देने वाले तो तमाम हैं
पर स्नेह भरी आँखों से
"मेरी खातिर" कहने वाला कोई नहीं !

जीवन दर्शन-आस्था-आस्तिकता पर
घंटों ज्ञान पिलाने वाले बहुत हैं
पर जीने की एक वाजिब वजह
दे देने वाला कोई नहीं !

हाँ.... 
मेरे पास दोस्त तो बहुत हैं
पर .......
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-- प्रकाश गोविन्द 
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बुधवार, जुलाई 24, 2013

शेर-ओ-सुखन

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हमदर्दियाँ ख़ुलूस दिलासे तसल्लियाँ 
दिल टूटने के बाद तमाशे बहुत हुए !!
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तुम अपने बारे में कुछ देर सोचना छोड़ो 
तो मैं बताऊँ कि तुम किस कदर अकेले हो !!
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ज़माना मेरा बड़ा एहतराम करता है 
उठा के ताक में जब से उसूल रखे हैं !!
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तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे 
मैं जिंदगी पे बहुत ऐतबार करता था !!
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-- प्रकाश गोविन्द 
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मंगलवार, जुलाई 23, 2013

अकेलापन (कविता)


बटन पुश कर देते हैं 
स्क्रीन चमकने लगती है 
उँगलियाँ हिलने लगती हैं 
हम गुम हो जाते हैं अनजान दुनिया में !

बाहर की दुनिया क्या सचमुच
इतनी नीरस और उबाऊ है कि 
हम अपने चिर-परिचित दायरों में
रोमांच खोजने लग जाते हैं?

जीते-जागते इंसान को छोड़कर
उससे नज़रें बचा कर
सैकड़ों लोगों का सर्कस देखना 
ज्यादा अच्छा लगता है

सामने बैठे इंसान से मुस्करा कर
दो बोल बोलने के बजाय
किसी दीवार पर
"LOL", "fantastic", "miss you"
लिखना ज्यादा अच्छा लगता है

बिस्तर से सुबह उठते ही
बटन पुश कर देते हैं 
स्क्रीन चमकने लगती है 
उँगलियाँ हिलने लगती हैं 
हम गम हो जाते हैं अनजान दुनिया में !

समय के साथ उम्र ढल जाती है
मॉडल बदल जाते हैं, प्लान बदल जाते हैं
चार-चार स्मार्टफोन घर में हो जाते हैं
पहले ही कम बोलते थे
अब मरघट सा छा जाता है
घर में ही SMS भेजे जाने लगते हैं

और एक दिन बैटरी चुक जाती है
चार्जर भी जवाब दे जाता है
तो अकेलापन ही अकेलापन
नितांत अकेलापन ही नज़र आता है
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-- प्रकाश गोविन्द 
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शुक्रवार, जुलाई 19, 2013

न्याय (कविता)










न्यायाधीश जा चुका है
वकील जा चुके हैं
दर्शक जा चुके हैं
मुंसिफ, पेशकार, और चपरासी तक जा चुके हैं
ख़त्म हो चुकी है बहस
फैसला हो चुका है

अपराधियों को ले जा चुकी है पुलिस
अदालत एकदम खाली है
सिर्फ लोगों के जूते के साथ आई धूल
अदालत के फर्श पर बची है

उस धूल में किसी की जेब से गिरा
एक सिक्का चमक रहा है !!!


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सोमवार, दिसंबर 08, 2008

दो कवितायें - मूक प्रश्न / संवाद



- मूक प्रश्न - (कविता)

बीजगणित के "इक्वेशन"
भौतिकी के "न्युमैरिकल"
और जैविकी की "एक्स्पैरिमेंट्स"
से परे भी,
एक दुनिया है
भूख और गरीबी से सनी हुयी !

वहीँ मिलूँगा मैं तुम्हें
यदि तुम मेरे मित्र हो तो आओ
इस इक्वेशन को हल करें
कि क्यों मुट्ठी भर लोग
करोड़ों के हिस्से की रोशनी
हजम कर जाते हैं !

इस न्युमैरिकल का जवाब ढूँढें
कि करोड़ों पेट क्यों
अंधेरे की स्याही पीने को अभिशप्त हैं !

आओ ! इस एक्स्पैरिमेंट्स का
परिणाम देखें
कि जब करोड़ों दिलों में
संकल्प की मशालें जल उठेंगी
तब क्या होगा ???



- संवाद - (कविता)

बहुत दिन हुए
नहीं दिखायी पड़ा कोई सपना
एक पत्थर तक नहीं उठाया हाथ में
चिल्लाए नहीं, हँसे नहीं रोये नहीं
किसी का कन्धा तक थपथपाए हुए
कितने दिन बीत गए !

यहाँ घास का एक बड़ा सा मैदान था
यह कहते हुए भी लड़खड़ाती है जुबान
इतने गरीब तो हम कभी नहीं थे
कि नफरत जानने के लिए
डिक्शनरी में शब्द ढूंढते फिरें !

उदाहरण के लिए यह आंसू की एक बूँद है
जिसे हम कहते रहे पत्थर
हम बेहतर जीवन की तलाश में यहाँ आए थे
यह कहने की शायद कोई जरूरत नहीं कि
क्रूरता के बाद भी बची हुयी है दुनिया !

इस अंधेर नगरी में सिगरेट सुलगाते हुए
हमारे हाथ कांपते हैं जरा सी आहट पर
हो जाती है बोलती बंद
अब कोई भी नहीं कहता
मैं इस दुनिया को आग लगा दूँगा !

हद से हद इतना सोचते हैं अगर चाहूँ तो
मैं भी लिख सकता हूँ
कागज़ पर क्रान्ति की बातें
और उबलते संवाद !!!

मंगलवार, अक्तूबर 14, 2008

रोजाना


(कविता)

देखिये जनाब,
आज का दिन,
फिर ऐसे ही गुजर गया,
मै सुबह उठा,
चाय, सिगरेट, अखबार,
यानी वही सब रोजाना के बाद,
मै यही सोचता रहा,
कि आख़िर ऐसा कब तक चलेगा !!
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फिर जनाब मै दफ्तर गया,
फाइल, दस्तखत, साहब की झिड़की,
यानी कि वही सब रूटीन के बाद,
मै यही सोचता रहा,
कि आख़िर ऐसा कब तक चलेगा !!
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और ऑफिस के बाद,
मै अपनी प्रेमिका से मिला,
छिटपुट प्यार, व्यापार और तकरार,
यानी वही सब कुछ के बाद,
हम यही सोचते रहे,
कि आख़िर ऐसा कब तक चलेगा !!
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फिर शाम को जनाब हम,
एक सभा में सम्मिलित हुए,
मार तमाम प्रस्तावों,
विवादों और घोषणाओं के बाद,
हम सब इसी निष्कर्ष पर पहुंचे,
कि आख़िर ऐसा कब तक चलेगा !!
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रात में जनाब,
डिनर, टीवी, और बीबी के बाद,
इन्टरनेट पर ब्लागबाजी करते हुए,
हम सब यही कहते रहे,
कि आख़िर ऐसा कब तक चलेगा !!
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और देखिए जनाब,
आज का दिन,
फिर ऐसे ही गुजर गया
!!!!!!!!