गुरुवार, दिसंबर 19, 2013

घर सा घर ... अब कहाँ है घर

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'घर' एक वास्तु मात्र न होकर भावसूचक संज्ञा भी है ! घर से अधिक सजीव एवं घर से अधिक निर्जीव भला क्या हो सकता है ! अनगिनत भावनाओं और प्रतीकों का मिला-जुला रूप है घर !

"कमरा नंबर एक / जहाँ दो-दो सड़कों के दुःशासनी हाथ / उसकी दीवारें उतार लेने को / लपके ही रहते हैं / / कमरा नंबर दो / जहाँ खिड़की से आसमान दिखता है / धुप भी आती है / कमरा नंबर तीन जो आँगन में खुलता है / जिसका दरवाजा पूरे घर को / रौशनी की बाढ़ में तैरा सकता है !! मगर अफसोस कि / रौशनी के साथ-साथ / पडोसी घरों का धुआं भी / भीतर भर आता है "

उपरोक्त पंक्तियों में घर का बिम्ब उभरता है ! यह बिम्ब भारतीय घर का ही है ! यह घर प्राचीन भी है, मध्कालीन भी और समकालीन भी ! यह बिम्ब बहुत सुखद नहीं है ! साहित्य में 'घर' वह भी होता है जो घर की स्मृति से, घरेलु रिश्तों द्वारा निर्मित और परिभाषित होता है :
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"घर/ हैं कहाँ जिनकी हम बात करते हैं/ घर की बातें/ सबकी अपनी हैं/ घर की बातें/ कोई किसी से नहीं करता/ जिनकी बातें होती हैं/ वे घर नहीं होते"
[अज्ञेय]

जैसा कि पहले ही कहा कि घर से अधिक सजीव और घर से अधिक निर्जीव क्या हो सकता है ? ईंट-गारे के बने चाहर- दीवारों को घर नहीं माना जा सकता ! घर के साथ जुड़े रहते हैं अनेकों रिश्ते - माँ, पिताजी, भाई, बहन, भाभी, चाचा, चाची ...... ! घर के साथ जुड़े रहते हैं अनेकों शब्द ..... प्रतीक्षा, प्रेम, सुरक्षा, नींद, भूख, भोजन, सुख-दुःख .............. :

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"कहाँ भाग गया घर / साथ-साथ चलते हुए / इस शहर के फुटपाथों पर / हमने सपना देखा था / एक छोटे से घर का, / और जब सपना / घर बन गया, // हम अलग-अलग कमरों में बंट गए" !

जैसे घरों में हम सचमुच (अथवा स्मृति में) रहते हैं, वैसा ही घर साहित्य में भी रचते हैं ! साहित्य में हमारी स्म्रतियां, अनुभूतियाँ अपना घर ही तो खोजती हैं - बनाती हैं ! यदि हम अब एक साथ रहने वाले केवल एक उपभोक्ता समुदाय बन गए हैं - सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में अपने चेहरे की तलाश में भटकते आकार मात्र - तो साहित्य इसे प्रतिबिंबित करेगा ही :

"ये दीवारें / मेरा घर हैं / वह घर / जिसके सपने देखती मैं / विक्षिप्तता की सुरंग में भटक गयी थी / इसकी छत के नीचे खड़ी / सोचती हूँ / यह तो मेरा सपना नहीं है / न ही भाव बोध / न ही कलात्मक रुचियों की अभिव्यक्ति" - (कुसुम अंसल)

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यदि सचमुच हमारा अपना विश्वास खंडित हो चुका है, पारंपरिक जीवन मूल्य भूल चुके हैं, स्वयं अपने 'आत्म' से निर्वासित हो चुके हैं तो यह आत्मनिर्वासन हमारे साहित्य को प्रभावित किये बिना कैसे रहेगा ? मुझे 'इंदिरा राठौर जी" की कविता याद आ रही है :

वही घर, वही लोग / लेकिन घर अब बासी लगता है / वैचारिक प्रगतिशीलता के आवरण में / सब दकियानूसी लगता है / बच्चे जनता है, भटकता है रोजगार के लिए / रोते शिकायत करते / आखिर ख़त्म हो जाता है घर /// हर कोने-अंतरे टंगे रहते हैं प्रश्न / मकडी के जालों से / घर चाहता है 'बड़े लोगों में' आयें नजर हम / समाज को दिखाएँ रूआब अपना / पैसा, ताकत, प्रतिष्ठा .... / घर अगर संकुचित है यहीं तक / तो यह मेरा घर नहीं है ..... यह मेरा घर नहीं है "

जिस आधुनिक सभ्यता के घिराव में हम आ गए हैं, उसमें भारतीय आदर्शवादी घर की गुंजाईश ही कहाँ बची है ! इस आधुनिक सभ्यता का जो कठोरतम वज्रपात हुआ है, वह तो इस घर की गृहिणी पर ही हुआ है ! निर्मल वर्मा जी की एक कहानी में यह मानसिक द्वंद स्पष्ट दिखाई देता है :

'घर कहीं नहीं था ! दुःख था ... बाँझ दुःख, जिसका कोई फल नहीं था, जो एक-दुसरे से टकराकर ख़त्म हो जाता है और हम उसे नहीं देख पाते जब तक आधा रिश्ता पानी में नहीं डूब जाता !'

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आधुनिक साहित्य में 'भारतीय घर' तेजी से हिचकोले खा रहा है ! कारण साफ है : समाज को स्त्री ने जन्म दिया ! दलबद्ध भाव से रहने के प्रति निष्ठां होने के कारण वह उसी समाज की अनुचरी हो गयी ! पुरुष समाज से भागना चाहता था ! स्त्री ने अपना हक़ त्यागकर उसे समाज में रखा - उसके हाथ में समाज की नकेल दे दी ! .... आज वह देखती है कि उसी के बुने हुए जाल ने उसे बुरी तरह जकड डाला है, जिससे निकलने के लिए उसकी छटपटाहट निरंतर जारी है !

गुजरे कई वर्षों के दौरान हमारे यहाँ जीवन का काफी तिरस्कार सा रहा, जिसका परिणाम हमें भौतिक दासता के रूप में ही नहीं बल्कि स्वयं अपने विचार, दर्शन और संवेदन की भी पंगुता के रूप में भुगतना पड़ रहा है ! घर की याद भी तभी है जब घर नहीं होता अथवा घर, घर जैसा नहीं होता ! श्रीकांत जी की कविता की पंक्ति याद आ रही हैं :
मैं महुए के वन में एक कंडे सा /सुलगना, धुन्धुवाना चाहता हूँ /मैं घर जाना चाहता हूँ..

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की 'यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी' शीर्षक कविता भी याद आ रही है, जिसमें एक खोये हुए घर का विषाद है और उसे तलाश करने की छटपटाहट भी ! रवींद्र नाथ ठाकुर जी की लिखी एक कहानी है - 'होमकमिंग' ! कहानी का मुख्य पात्र 'जतिन चक्रवर्ती' दिन भर घर से बाहर भटकता और शैतानियाँ करता रहता है ! उसे सुधारने के लिए उसके माँ-बाप उसे कलकत्ता भेज देते हैं, जहाँ उसका बिलकुल मन नहीं लगता ! वह अपने घर के लिए तड़पता हुआ एक-एक दिन गिनता रहता है कि कब छुटियाँ मिलें और कब वह घर पहुंचे ! आखिर एक दिन उसे छुट्टी मिल जाती है किन्तु म्रत्यु शय्या पर ! बेहोशी की सी बीमारावस्था में घर-घर बड- बडाता हुआ वह चल बसता है !
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ऐसा लगता है कि जतिन चक्रवर्ती की इस विडम्बनापूर्ण नियति को हमारे अधिकाँश लेखकों ने स्वीकार कर लिया है ! किन्तु वे घर का दुखडा भी नहीं रोते, न ही उसकी नुमाईश करते हैं ! वे स्थिति का सामना करते हैं और पुनर्वास का भी ! अज्ञेय जी का काव्य संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा है' में ऐसा ही कुछ है :

"घर मेरा कोई है नहीं / घर मुझे चाहिए / घर के भीतर प्रकाश हो / इसकी भी मुझे चिंता नहीं / प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो / इसी की मुझे तलाश है / ऐसा कोई घर आपने देखा है ? / न देखा हो / तो भी हम / बेघरों की परस्पर हमदर्दी के / घेरे में तो रह ही सकते हैं "

'बेघरों की परस्पर हमदर्दी का घेरा' अपने आप में प्रकाश का घेरा चाहे न भी हो, किन्तु वह वह उसकी अनिवार्य भूमिका निश्चय ही है ! कम से कम वह उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का पहला उपक्रम तो है ही ! उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का - जो प्राकृतिक नहीं, मानव निर्मित सांस्कृतिक अँधेरा :

"मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है / और गली के सिरे पर लगा गली का नाम हटाया है / और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है / पर अगर तुम्हे मुझसे जरूर मिलना है / तो हर देश के शहर की हर गली का हर दरवाजा खटखटाओ ..... / यह एक शाप है, एक वरदान है / जहाँ भी स्वतंत्र रूह की झलक मिले / समझ जाना वह मेरा घर है !"

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मंगलवार, दिसंबर 10, 2013

खुरपेंची लाल महान

क कालोनी टाईप मोहल्ला था ! वहीँ के लोगों ने स्थानीय रख-रखाव व अन्य कार्यक्रमों के लिए एक मोहल्ला समिति बनायी और बुजुर्ग रईस अहमद को सर्व सम्मति से अध्यक्ष बना दिया था ! जैसा कि अन्य अच्छे मोहल्लों में होता है वैसा ही वहाँ भी माहौल था - जमादार सड़कें साफ़ करता, कूड़े वाला कूड़ा ले जाता, माली पार्क का रख-रखाव करता, रात में एक चौकीदार डंडा लेके सीटी बजाता घूमता, साल में एक-दो बार खेल-कूद के आयोजन संपन्न होते !

सी मोहल्ले में खुरपेंची लाल भी थे, गजब के नुकतेबाज...हर बात में कमियां गिनाते, सबकी हरामखोरी और मक्कारी का रोना रोते, मोहल्ला समिति के फंड में गड़बड़ी की बात करते ! लोग खुरपेंची लाल की क्रांतिकारी बातों से बहुत प्रभावित होते ! तमाम 'बिजी विदआउट वर्क' वाले छुटभैय्ये खुरपेंची लाल के प्रभाव में आते चले गए !

क दिन अचानक ही मोहल्ला समिति की मीटिंग बुलायी गयी और बुजुर्ग रईस अहमद की जगह खुरपेंची लाल को अध्यक्ष चुन लिया गया ! रईस अहमद ने भी मन ही मन राहत की सांस ली कि इस 'थैंकलेस जॉब' से छुट्टी मिली !

मोहल्ले वालों ने खुरपेंची लाल के अध्यक्ष बनने पर खूब ढोल-नगाड़े बजे और जिंदाबाद के नारों के साथ जुलूस निकाला ! हफ्ता-दस दिन तो जश्न और बधाई में गुजर गए ! उसके बाद क्रांतिकारी परिवर्तन का दौर शुरू हुआ !

खुरपेंची लाल ने पार्क के माली को हरामखोरी से मुक्त करते हुए कहा कि मेरे कई दोस्त एग्रीकल्चर, और फारेस्ट डिपार्टमेंट में हैं, उनसे कहूंगा तो दो-तीन माली आकर पार्क की काया पलट कर देंगे, आप लोग देखना ये पार्क फूलों से भर जाएगा !

फिर निकम्मे चौकीदार को जिम्मेदारी से मुक्त करते हुए कहा - "सिक्योरिटी सर्विस से बात करके मोहल्ले में वर्दीधारी सिक्योरिटी गार्ड नियुक्त करवाऊंगा, चोर-बदमाश तो सात फुटे सिक्योरिटी गार्ड को देखते ही भाग जायेंगे !"

सके उपरान्त जमादार और कूड़े वाले को बुलाकर उनकी काहिली गिनाई गयी, दोनों को जब उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराया गया तो दोनों एक साथ बोले - "बाबू जी आप किसी और को देख लो !" खुरपेंची लाल ने तमक के कहा - "भागो ~  यहाँ तुम जैसे काहिलों की कोई जरुरत नहीं, कल ही नगर निगम जाऊँगा और सब इंतजाम हो जाएगा !"
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खैर !!!
इस तरह के तमाम क्रांतिकारी कदम खुरपेंची लाल द्वारा उठाये गए !
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दिन पर दिन बीतते गए !
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मोहल्ले का पार्क उजाड़ हो गया !
गलियों में गंदगी और कूड़ा जमा रहता है !
जब-तब छोटी-मोटी चोरियों की खबर भी सुनायी देती हैं !
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खुरपेंची लाल आज भी पनवाड़ी और चाय की दूकान पे सबकी हरामखोरी और निकम्मेपन को गालियां देते दिख जाते हैं
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The End
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सोमवार, दिसंबर 02, 2013

तालिबानी गुडविल इन पाकिस्तान

एक तालिबानी पाकिस्तान में बैंक लूटने के लिए गया, 
वहाँ कैशियर के पास जाकर बोला - "मेरे बैग में AK 47 है, चुपचाप सारा कैश मेरे हवाले कर दो !"

कैशियर ने सहमकर जल्दी-जल्दी सारा रुपया तालिबानी को सौंप दिया !

तालिबानी लूट कर जब बैंक से बाहर निकला तो उसे अचानक ध्यान आया कि 

वो जो बैग लेकर बैंक गया था उसमें तो AK 47 थी ही नहीं ! 
AK 47 वाला बैग तो उसका साथी दो दिन पहले ही मांग के ले गया है !

बेचारा तालिबानी आत्मग्लानि में डूब गया और सोचने लगा कि 

जुमे के रोज उसने कैशियर से झूठ बोला … उफ्फ़ ~~~ अल्लाह उसे माफ़ नहीं करेगा !

बस फ़ौरन तालिबानी वापस बैंक पहुंचा और
बैंक मैनेजर के कमरे में घुस गया !
बैंक मैंनेजर ने सवाल किया - "हाँ सर कहिये, मैं आपके लिए क्या कर सकता हूँ ?"

तालिबानी - "बिरादर हमसे आज अनजाने में एक बहुत बड़ा मिस्टेक हो गया !"
बैंक मैनेजर - "कैसी मिस्टेक सर ?"

तालिबानी - "अभी थोड़ी देर पहले हम तुम्हारा बैंक लूटा .... हमने कैशियर को बोला कि हमारे बैग में AK 47 है, सारा रुपया हमारे हवाले करो, कैशियर ने वैसा ही किया ! अभी हम तुमसे झूठ नहीं बोलेगा … उस समय हमारे बैग में AK 47 नहीं था !"

मैनेजर - "नो प्राब्लम सर ! आप ऐसा करें कि एक-दो रोज में जब कभी आपको समय मिले यहाँ आकर AK 47 दिखा दीजियेगा .... हैव ए गुड डे सर !"

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End
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फेसबुक मित्रों द्वारा की गयीं कुछ प्रतिक्रियाएं
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    • आदेश शुक्ल - लाहोर बिना कुवैत 
    • Govind Singh Parmar - hahaahahahahahahahaha bahut umda
    • Prabhu Heda - बाउण्ड्री पार चौका लगा दिए गुरुदेव । अब हसी रोकने की कोई दवा दीजिये जल्दी से
    • Manoj Chhabra - very nice....
    • Rahul Kumar ·Thoko taali.....
    • Mukesh Tokas ·अच्छा है, बहुत मजा आया
    • Aditi Chauhan - bahut majedar
    • Basant D Jain - Hahahaha bahut zordar
    • Dilbag Virk - रोचक.... हमारे नेताओं से तो अच्छा निकला तालिबानी
    • Prakash Govind - Dilbag Virk ji ... Aapne ye baat to bahut sahi kahi ....
    • राजीव तनेजा - आपसी विश्वास..भरोसे और सद्भावना की पराकाष्ठा ..
    • मिथिलेश कुमार राय - सुनते हैँ कि कभी बेईमानी का काम भी पूरी ईमानदारी से किया जाता था पृथ्वी पर!
    • Madhu Kaushal - हा हा हा बेचारा तालिबानी ...
    • Brajesh Rana - मजबूर फिल्म में अमिताभ कहते हैं की चोरो के भी उसूल होते हैं. तो प्राण साहिब बोले की चोरो के ही उसूल होते हैं.
    • Prakash Govind - हमारे यहाँ तो डाकू भी बहुत उसूल वाले होते थे .... पहले से सूचना देकर बाकायदा पूजा-पाठ के उपरान्त डकैती कार्यक्रम संपन्न करते थे
    • Brajesh Rana - हर चीज़ के नियम क़ानून होते हैं.
    • Harivansh Sharma - हमारे एक मित्र,अक्सर कहा करते है,ईमानदारी अच्छी होती है,परन्तु बेवकूफी नही...
    • Vijay Gupta - very nice sir
    • Vijay Gupta -Congresiyon se to achha hi nikla wo talibani
    • ÁKshäy Yâdáv - nice onE..
    • Syed Khalid Mahfooz - hahahaha..
    • Sandeep Gupta - क्या ईमानदारी हे
    • Vijay Kumar Singh - सचमें आपने इस विचार के माध्यम से जो संदेश देने की कोशिश की है। इसके काफ़ी गहरे भाव हैं। आज की वर्तमान परिस्थिति में रेखांकित करती इसमें कुछ गहरे संदेश हैं।
    • Rakesh Sharma - wah kay baat h dono taraf se emandari .................... .Na jane konsa hadsa akhbar me aajaye , Na jane konsa shikka bajar me aajaye , Are chor uchkko ke sath bhi dosti kar lo yaro , Na jane kon kal sharkar me aajaye ...............
    • न जाने कौन सा हादसा अखबार में आ जाए
      न जाने कौन सा सिक्का बाजार में आ जाए
      अरे चोर-उचक्कों के साथ भी दोस्ती कर लो
      न जाने कौन कल सरकार में आ जाए !!!
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      वाह... वाह... वाह .... बहुत खूब
    • Purnima Seth - kya baat hai ... kya goodwill hai
    • Raju Munjal - हाहाहा ये दिया........
    • Kantilal Jain - bahut achhe
    • विकास भारतीय - बहा तो सारे ही खुदा के नेक बन्दे निकले
    • Pawan Mishra - असली गुडविल तो मैनेजरवा ने दिखाई
    • Vivek Shrivastava - सुपर्ब हा हा हा हा हा हा
    • Satyawan Yadav - Nice story ]
    • Honey Singh Nice..
    • Goldy Sadh - hahaha
    • Sagar Gaud - Bahut badiya massage diya h aapne is post k zariye
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