एक प्रिय ब्लॉगर साथी ने कुछ ही दिन पहले मेल में लिखा कि " कितने बच्चे हैं न हम आज भी भीतर से ...!"
इन शब्दों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम बड़ों की दुनिया इतनी उदास और बुझी-बुझी सी शायद इसीलिये रहती है क्योंकि हम अपने बचपने को कब तिलांजली दे देते हैं हमें मालूम ही नहीं चलता ! जिस दिन हम अपना बचपना खोते हैं ... खुशिया भी हमसे महरूम हो जाती हैं ! कृत्रिमता के आवरण से घिरते जाते हम खुल के हँसना और गुनगुनाना भूल जाते हैं !
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इस नज्म में न जाने कितने कितने हम सबकी कहानी शामिल है ! आज जब सब कुछ मुहैया है तो किसी के दिल से आवाज भी आती है -
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ......
कोई आह भरकर कह उठता है -
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ कि कश्ती वो बारिश का पानी