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गुरुवार, मई 07, 2009

वो कागज़ की कश्ती .......

क प्रिय ब्लॉगर साथी ने कुछ ही दिन पहले मेल में लिखा कि
" कितने बच्चे हैं न हम आज भी भीतर से ...!"
 
इन शब्दों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम बड़ों की दुनिया इतनी उदास और बुझी-बुझी सी शायद इसीलिये रहती है क्योंकि हम अपने बचपने को कब तिलांजली दे देते हैं हमें मालूम ही नहीं चलता ! जिस दिन हम अपना बचपना खोते हैं ... खुशिया भी हमसे महरूम हो जाती हैं ! कृत्रिमता के आवरण से घिरते जाते हम खुल के हँसना और गुनगुनाना भूल जाते हैं !
जीवन दर्शन को समझना बेहद जरूरी है, कहीं जिंदगी काम के बोझ तले कुंठित न रह जाए, आप ख़ुद अपने लिए समय न निकाल सकें, जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का आनंद न ले सकें, तो फिर जीवन का अर्थ क्या रह जाता है ?

इब्ने ईशा की एक बहुत ही खूबसूरत नज्म है :

एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों 
एक मेले में पहुँचा हमकता हुआ 
दिल मचलता था एक-एक शै पे मगर 
जेब खाली थी कुछ मोल ले न सका 
लौट आया लिए हसरतें सैकडों 
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों 

खैर महरूमियों के वे दिन तो गए 
आज मेला लगा है उसी शान से 
आज चाहूँ तो इक-इक दूकान मोल लूँ 
आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ 
न-रसाई का अब जी में धड़का कहाँ 
पर वो छोटा सा अल्हड सा लड़का कहाँ !!!

इस नज्म में न जाने कितने कितने हम सबकी कहानी शामिल है ! आज जब सब कुछ मुहैया है तो किसी के दिल से आवाज भी आती है -
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ......

कोई आह भरकर कह उठता है -
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ कि कश्ती वो बारिश का पानी