एक प्रिय ब्लॉगर साथी ने कुछ ही दिन पहले मेल में लिखा कि " कितने बच्चे हैं न हम आज भी भीतर से ...!"
इन शब्दों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम बड़ों की दुनिया इतनी उदास और बुझी-बुझी सी शायद इसीलिये रहती है क्योंकि हम अपने बचपने को कब तिलांजली दे देते हैं हमें मालूम ही नहीं चलता ! जिस दिन हम अपना बचपना खोते हैं ... खुशिया भी हमसे महरूम हो जाती हैं ! कृत्रिमता के आवरण से घिरते जाते हम खुल के हँसना और गुनगुनाना भूल जाते हैं !
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इस नज्म में न जाने कितने कितने हम सबकी कहानी शामिल है ! आज जब सब कुछ मुहैया है तो किसी के दिल से आवाज भी आती है -
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ......
कोई आह भरकर कह उठता है -
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ कि कश्ती वो बारिश का पानी
मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! आपने बहुत ही सुंदर लिखा है ! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
जवाब देंहटाएंAb aise hi likhte rahiyega...
जवाब देंहटाएंIbne inshaa ki bahut sunder Nazam apne parwai...achhi lagi...
आभार विनीता जी का जो उन्होंने आप को ब्लॉग लिखने पर विवश किया.
जवाब देंहटाएंहमें भी एक बहुत ही खूबसूरत नज़्म पढने को मिली.
aap ne likha-
'कृत्रिमता के आवरण से घिरते जाते हम खुल के हँसना और गुनगुनाना भूल जाते हैं !'
sach hai phir bhi--
बच्चे हम सभी मन से कहीं न कहीं हमेशा रहेंगे aur rahna chaheeye...चाहे उम्र कितनी हो जाये..
शुक्रिया..
पोस्ट का कलेवर भी अच्छा है.
[aap ki mail mein jo link aap likhtey hain apne blog ka---wah hai -www.aajkiaawaaj.blogspot.com
-jab ki aap ke blog ke address mein spelling 'aawaaz 'hai...kripya sudhaar lijeeyeega..taki mail se link click ho sakey.
shukriya
and dher sari shubkamanaayen agli post ke liye.
itni sunder nazm padhwane ke liye dhanyawaad.bhavishya ke liye shubhkaamnayen.
जवाब देंहटाएंprakash ji, aaj samay tha apni sabse purani post dekh raha tha, meri pratham post ke aap sammanit tippnikaar hain ye dekh kar aapke blog par gaya, aapka follower bana, aur comment kiya, aage bhi mere blog par aayen aapka swagat hai. ho sake to meri aur pre-posted rachnayen padhen, aapko achchi lagengi aisa vishwas hai.
जवाब देंहटाएंबहुत दिन बाद आपकी पोस्ट आई,
जवाब देंहटाएंअत्यंत सारगर्भित बात कही है आपने,
बेहद खूबसूरत नज्म है,
आपकी एक और शानदार पोस्ट,
आगे भी ऐसी ही पोस्ट का इन्तजार है
विनीता जी अच्छा किया। और हमें एक बेहतरीन नज़्म पढने को मिल गई। सच वो अल्हड़ सा लड़का कही छीप गया है।
जवाब देंहटाएंप्रिय प्रकाश गोविंद जी,
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविता पढवाने के लिये आभार."
रामराम.
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शुभकामनाओं सहित
पी.सी.रामपुरिया (मुदगल)
रामपुरिया का हरयाणवी ताऊनामा
http://rampuriapc.blogspot.com
12:12 PM
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जवाब देंहटाएंइन शब्दों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम बड़ों की
जवाब देंहटाएंदुनिया इतनी उदास और बुझी-बुझी सी शायद इसीलिये रहती है क्योंकि हम
अपने बचपने को कब तिलांजली दे देते हैं हमें मालूम ही नहीं चलता !
जिस दिन हम अपना बचपना खोते हैं ... खुशिया भी हमसे महरूम हो जाती हैं !
कृत्रिमता के आवरण से घिरते जाते हम खुल के हँसना और गुनगुनाना भूल
जाते हैं !
हम बचपने को तिलांजली दे नहीं देते देनी पड़ती है अपना फ़र्ज़ और जिम्मेदारियों निभाने के लिए .....!!
you have written a beautiful and inspiring poem. which can touches everyone's heart.
जवाब देंहटाएंchaliye saab...!
जवाब देंहटाएंaap kisi ke kahne par to laute,,,,
badhaaai is jordaaar waapsi ki,,,
आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा! आपने बहुत ही अच्छा लिखा है ! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है!
जवाब देंहटाएंhttp://mvanesagarrido.blogspot.com/
जवाब देंहटाएंbahut hi lajawaab NAZM hai... jitni bhi tareef karun kam hogi.
जवाब देंहटाएंaapka blog bahut sundar hai.
prakash ji , main kya kahun , aapne itna accha likha hai ki man kahin thahar sa gaya hai .. aap likhte rahiye pls...
जवाब देंहटाएंaapke lekhan ko salaam
aapko meri dil se badhai ..
meri nayi kavita padhkar apna pyar aur aashirwad deve...to khushi hongi....
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
मैं तो भूल ही गयी थी अपने ब्लॉग को...मुझे ऐसा लगता था ब्लॉग पढ़वाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती है ..इतने सारे लोगों को लिखो.फिर कोई पढ़े .पता नहीं कुछ ठीक सा नहीं लगता था.मैंने कंप्यूटर पर बैठना शुरू किया था संवाद के लिए..और जैसा आपने अपने ब्लॉग मैं लिखा है न umrr के साथ सब अपना बचपन खो देते हैं ...मैंने भी हार मान ली थी..किन्तु आज अचानक अपने मेल बॉक्स मैं आपकी प्रतिक्रिया देख ख़ुशी हुई..बहुत बहुत धन्यवाद.... आशा है कोई बात निकलेगी और उसकी चर्चा भी दूर तलक जायेगी.....
जवाब देंहटाएंआज इतने दिनों बाद आपको पढ़कर बहुत अच्छा लग रहा है
जवाब देंहटाएंkaafi accha likha hai aapne, aur aapse ek guzarish ki aap likhna band na karein varna hum itni acchi kavitaayen padne se reh jayenge
जवाब देंहटाएंबधाई इस टूल को जोड़ने हेतु--दो कमेन्ट बॉक्स में से एक कमेन्ट बॉक्स को हटा दें..या इस बॉक्स को ऊपर वाले कमेन्ट बॉक्स के साथ लगा दें.
जवाब देंहटाएंयाद आ गए बचपन के वो दिन प्यारे-प्यारे!
जवाब देंहटाएंछोड़ा करते थे ख़ुशियों के जब हम फव्वारे!
ohhhh...... kya likha hai apne jaise mere bachpan ki ghatnayen aap kori kagaj par utar diye........... mai kaphi bhavuk ho gaya apka ye nagma padhkar..........
जवाब देंहटाएंplz mujhe v kuchh salah dete rahiye.........
'तस्लीम' पर आपके विचारोत्तेजक कमेंट पाकर आहलादित हूं। क्या आप 'तस्लीम' अथवा 'साइंस ब्लॉगस असोसिएशन' से जुडना चाहेंगे। आपके अनुभवों से बहुत लोगों को फायदा होगा।
जवाब देंहटाएंजाकिर अली रजनीश
कृत्रिमता के आवरण से घिरते जाते
जवाब देंहटाएंहम खुल के हँसना और गुनगुनाना भूल
जाते हैं !
एक नायाब और सच्ची रचना नुमा आलेख / कहन
के लिए मुबारकबाद कुबूल फरमाएं
---मुफलिस---
Aapke blog par shayad pahli baar aana hua.Ek achche anubhav ke liye dhanywaad.Kaphi dino se dubara aapne kuch nahin likha?
जवाब देंहटाएं"बागवानी" ब्लॉग पे से मैंने वर्ड वेरिफिकेशन हटा दिया है...उस और ध्यान आकर्षित करनेके लिए शुक्र गुजार हूँ..!
जवाब देंहटाएंआपकी नज़्म के बारेमे अलग से टिप्पणी डोंगी...इतने दिग्गज अपने कमेन्ट छोड़ गएँ हैं, मुझे नए अल्फाज़ खोजने होंगे !
आपका आलेख भी पढा...सच है...हमारे ज़हनियत ऐसी बनी है,कि, पैसे चुकाके पाप का बोझ हल्का करवाना चाहते हैं..!या उसी तरीके से पुण्य कमाना चाहते हैं!
खुदका रास्ता, खुद नहीं, कोई पंडित/मौलवी चले, और हम मंज़िलपे पोहोंचें !
ये "सहारे " लगते हैं , क्योंकि सच्चाई के रास्तेपे क़दम बढाना मुश्किल होता है..!हर बला "ऐसे सहारे" पैसे लेके दूर कर देने लगे, तो फिर आज तक किसीपे संकट आताही क्यों..ये सवाल ऐसे लोग, अपने आपसे कभी करतेही नहीं...!
गलती से दूँगी के बजाय "डोंगी" हो गया है...माफी चाहती हूँ..!
जवाब देंहटाएंKya khub likha hai apne........
जवाब देंहटाएंLajawab rachna
इब्ने ईशा की इस नज़्म को मैंने भी पढ़ा है .शायद कथादेश से या नया ज्ञानोदय में...पर मेले तो अब रोज लग राहे है ओर रोज हम थोडा थोडा अपने भीतर कुछ खो रहे है .सारी कवायद तो इसको बचाने की है यार मेरे....
जवाब देंहटाएंप्रकाश जी,
जवाब देंहटाएंआपके कहे शब्दों से जो श्रद्धा आपके लिए उभरी है ....उसके लिए बस हाथ जोड़ कर आपको नमन है .......!!
सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति से भरी कविता...बधाई.
जवाब देंहटाएं__________________________________
मेरे ब्लॉग "शब्द-शिखर" पर पढें 'ईव-टीजिंग और ड्रेस कोड'' एवं अपनी राय दें.
वाकई अपने अन्दर के बच्चे को संजोये रखने की जरुरत है. आपके प्रोफाइल ने भी प्रभावित किया.
जवाब देंहटाएंआज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ
जवाब देंहटाएं...sundar...laajwaab ..badhai.aapko
सुन्दर
जवाब देंहटाएंप्रकाश गोविंद जी,
जवाब देंहटाएंजीवन दर्शन को समझना बेहद जरूरी है !
कहीं जिंदगी काम के बोझ तले कुंठित न रह जाए !
आप ख़ुद अपने लिए समय न निकाल सकें !
जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का आनंद न ले सकें तो
फिर जीवन का अर्थ क्या रह जाता है ?
आज सुबह सुबह बहुत सुंदर बात पढने को मिली,
धन्यवाद
bahut sundar .....
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग बहुत सुंदर है, साथ ही आपकी लेखन शैली लाजवाब...... बचपन का ये खूबसूरत उपहार बहुत पसंद आया .
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ....प्रकाश जी बचपन का एहसास रखना अपने आप को संजीदगी के करीब रखने का ही एक नाम है,समय के प्रभाव में आकर कहा हम अपने बचपन को छोड़ आते है पता ही नहीं चलता , वो bholapan ,वो masumiyat ही तो चाहिए आज की dunia को achchhi dunia banaye रखने के लिए कुछ mahine पहले likhi मेरी एक rachna आपको preshit करने के moh को tyag नहीं सकता kripya trutiyon के लिए kshma करें
जवाब देंहटाएं***********************************************************
कोई खिलौना सा टूट गया है मेरा बचपन
टूटे खिलोने सा कहीं छुट गया है मेरा बचपन
कितना खुश था कितना सुख था बचपन की उन बातों में
समय का जालिम चेहरा आकर लूट गया मेरा बचपन
हंसता खिलता सबसे मिलता ,एक जिद्दी बच्चे जैसा
जाने किस की नज़र लगी और रूठ गया मेरा बचपन
गुल्ली डंडा ,गोली कंचा ,डोर पतंग सी उमंग लिए
रंग बिरंगे गुब्बारों सा था ,क्यूँ फूट गया मेरा बचपन
दिल की गहराइयों को छूता..शानदार
जवाब देंहटाएंएक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों
जवाब देंहटाएंएक मेले में पहुँचा हमकता हुआ
दिल मचलता था एक-एक शै पे मगर
जेब खाली थी कुछ मोल ले न सका
लौट आया लिए हसरतें सैकडों
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों