सोमवार, जुलाई 27, 2009

अकेला / हमदर्द [दो लघु-कथाएँ]


अकेला [लघु-कथा]
*******************************
यूँ तो पूरे गाँव में सौ के लगभग घर थे, फिर भी उसे अपने अलग-थलग पड़ जाने की कसक थी ! यह बात मन को बहुत कचोटती थी कि पूरे गाँव में उसकी जाती-बिरादरी का कोई भी व्यक्ति ना था !

मैट्रिक की पढ़ाई के पश्‍चात कुछ ऐसा संयोग बना कि आगे के अध्ययन के लिए अपने मामा के पास दूसरे प्रदेश जाना पड़ा ! अब उसका एकाकीपन और भी बढ़ गया था ! जब भी उसे कोई अपनी तरफ का व्यक्ति मिलता, उसका मन प्रफुल्लित हो उठता ... चेहरे की चमक बढ़ जाती ! उसके बाद फिर वही अकेलापन !

पढ़ने-लिखने में आरंभ से ही मेधावी छात्र होने के कारण इंजीनियरिंग कालेज में चयन हो गया ! इंजीनियरिंग में टॉप करने के उपरांत विदेश जाने का अवसर मिला तो अमेरिका के लिए रवाना हो गया ! वहीं 'स्पेस रिसर्च सेंटर' में नौकरी भी लग गयी ! सभी ऐशो-आराम वा सुख-सुविधाओं के बीच भी उसे सदैव तलाश रहती थी, अपने देश के किसी भी व्यक्ति की ! भीड़ से घिरा रहने के बावजूद भी वह अपनी तन्हाई से परेशान रहता !

बहुउद्देशीय परियोजना के अंतर्गत अंतरिक्ष में स्थापित प्रयोगशाला में शोध कार्य हेतु प्रतिभाशाली तीन लोगों का चयन हुआ तो उसमें उसका भी नाम था

आज उसे अंतरिक्ष में स्थित लैब में काम करते हुए आठ दिन हो गये थे ! दो दिन पूर्व उसके दोनो सहयोगी पृथ्वी पर अति-आवश्यक उपकरण सामग्री लाने गये थे ! अब उसे घबराहट हो रही थी ! उसके एकाकीपन वाला बुखार तेज होता जा रहा था !

उसके अधीर व व्याकुल मन को प्रतीक्षा थी - पृथ्वी के किसी भी व्यक्ति की !'

********************************************************************

हमदर्द [लघु-कथा]
********************************
एक लंबी आह भरते हुए उन्होने अख़बार से सिर उठाया,
'ओह, क्रुएल, किस कदर निर्दयी हैं !'
फिर उनकी दृष्टि पास बैठे साथियों पर घूम गयी,
'देखिए साहब, साइंस के नाम पर बेचारे जानवरों पर कितना ज़ुल्म हो रहा है !'

मेज पर अख़बार फैलाते हुए वे बोले,
'ज़रा देखिए, इस बेचारे मंकी चाइल्ड को, इसकी आँखों में कितना दर्द दिखाई दे रहा है, बेचारा मासूम है .... तड़प रहा होगा दर्द से, मगर बेज़ुबान है ! अपनी पीड़ा व्यक्त नहीं कर सकता, कहे भी तो किसे ?'

'क्या हुआ .... ?' लोगों की निगाहें समाचार-पत्र में छ्पे चित्र पर टिक गयी !

'अरे इस बेचारे का दिल काटकर निकाल दिया और इस मासूम बच्चे को मशीन का दिल लगाकर दो महीने से जिंदा रखे हुए हैं ! कितना अमानवीय कार्य है और फिर इस परीक्षण को विज्ञान की सफलता कहते हैं !
इस बेचारे के दर्द का ज़रा भी एहसास नहीं ...... !'

'साहब, ........
ख़ानसामा ने कमरे में आते हुए पूछा, - 'आज मुर्गा बनेगा या मीट ?'

'अरे भाई, मुर्गा ही ले आओ, लेकिन हाँ .. पिछली बार का मुर्गा ज़रा सख़्त था !
लगता है बड़ा मुर्गा ले आए थे ! ऐसा करो, एक बड़े की जगह दो छोटे-छोटे चूजे ले आओ ! दस-बीस रुपया ज्यादा लग जाए तो कोई बात नहीं !'

साहब फिर से गंभीरतापूर्वक अख़बार की अन्य खबरें पढ़ने में व्यस्त हो गये !

*****************************************************************

गुरुवार, जून 25, 2009

यकीन

यकीन [लघु कथा 131लघुकथा एवं रेखा चित्र - प्रकाश गोविन्द

वह दोनों आमने-सामने बैठे थे ! बीच में एक छोटी सी गोल मेज थी ! जिसमें कॉफी के दो प्याले, एक शुगर पाँट, दो चम्मच और एक ऐश ट्रे पड़ी थी ! आदमी सिगरेट पीते हुए थोड़ी-थोड़ी देर बाद मुस्करा देता था ! औरत चुप थी, लेकिन आदमी की मुस्कराहट से परेशान हो उठती थी !

उसने आदमी से पूछा - "कितने चम्मच चीनी" ?

आदमी ने सन्क्षिप्त जवाब दिया - "दो चम्मच" !

"लेकिन तुम तो हमेशा एक चम्मच चीनी लेते हो" ?

"हाँ" !

"फिर" ?

"आज से पहले तुमने भी तो कभी कुछ पूछा नहीं" !

"हाँ .... लेकिन" ?

"लेकिन कुछ नहीं , आज कॉफी कुछ अधिक मीठी हो तो अच्छा है"

औरत ने चुपचाप दो चम्मच चीनी डाली और कप आदमी की तरफ बढा दिया ! दोनों धीरे-धीरे कॉफी 'सिप' करने लगे और आहिस्ता-आहिस्ता कप खाली हो गए ! सन्नाटे को तोड़ते हुए औरत बोली -
"जानते हो तुम्हारी कॉफी में जहर था, .... जो एक घंटे बाद तुम पर अपना असर दिखायेगा" !

आदमी ने सुना और आहिस्ता से बोला - "मालूम था" !

औरत ने ठहाका लगाया और बोली -
"यानी कि तुमको मालूम था ... इस कप में जहर था,, फिर भी तुम पी गए ? .... जबकि तुम मना कर सकते थे या बहाने से कप गिरा सकते थे या फिर अलमारी से अपना रिवाल्वर निकालकर मुझे गोली भी मार सकते थे,,,लेकिन तुमने यह सब नहीं किया और कॉफी पी गए" ?

"हाँ जानता था फिर भी मैं पी गया ! इसका भी एक कारण है ..... मैं यकीन नहीं कर पा रहा था कि तुम मुझे जहर भी दे सकती हो ... और दुविधा में जीने से बेहतर है असलियत जानने की ललक में मर जाना" !
********************************************************
[कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित]

bar'यकीन' लघु कथा को अल्पना वर्मा जी के स्वर में सुनिए :

गुरुवार, मई 07, 2009

वो कागज़ की कश्ती .......

क प्रिय ब्लॉगर साथी ने कुछ ही दिन पहले मेल में लिखा कि
" कितने बच्चे हैं न हम आज भी भीतर से ...!"
 
इन शब्दों ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम बड़ों की दुनिया इतनी उदास और बुझी-बुझी सी शायद इसीलिये रहती है क्योंकि हम अपने बचपने को कब तिलांजली दे देते हैं हमें मालूम ही नहीं चलता ! जिस दिन हम अपना बचपना खोते हैं ... खुशिया भी हमसे महरूम हो जाती हैं ! कृत्रिमता के आवरण से घिरते जाते हम खुल के हँसना और गुनगुनाना भूल जाते हैं !
जीवन दर्शन को समझना बेहद जरूरी है, कहीं जिंदगी काम के बोझ तले कुंठित न रह जाए, आप ख़ुद अपने लिए समय न निकाल सकें, जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का आनंद न ले सकें, तो फिर जीवन का अर्थ क्या रह जाता है ?

इब्ने ईशा की एक बहुत ही खूबसूरत नज्म है :

एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों 
एक मेले में पहुँचा हमकता हुआ 
दिल मचलता था एक-एक शै पे मगर 
जेब खाली थी कुछ मोल ले न सका 
लौट आया लिए हसरतें सैकडों 
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों 

खैर महरूमियों के वे दिन तो गए 
आज मेला लगा है उसी शान से 
आज चाहूँ तो इक-इक दूकान मोल लूँ 
आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ 
न-रसाई का अब जी में धड़का कहाँ 
पर वो छोटा सा अल्हड सा लड़का कहाँ !!!

इस नज्म में न जाने कितने कितने हम सबकी कहानी शामिल है ! आज जब सब कुछ मुहैया है तो किसी के दिल से आवाज भी आती है -
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ......

कोई आह भरकर कह उठता है -
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ कि कश्ती वो बारिश का पानी

शुक्रवार, जनवरी 16, 2009

अंध विश्वास का मायाजाल

andh vishvas

क्या टी वी...क्या अखबार...क्या मैगजीन...सब जगह तंत्र-मंत्र , ज्योतिष , टैरो-कार्ड, फेंग-सुई-वास्तु का जाल फैला नजर आता है ! देश की आजादी के पश्चात संपन्न वर्ग के ज्यादातर लोग कभी इतने अन्धविश्वासी नहीं रहे जितने कि आज हैं ! आज समाज का शिक्षित और सुविधाभोगी वर्ग जिस तरह अपने जीवन में तर्क-विरोधी होता जा रहा है - वो शर्मनाक व निराशाजनक है !

न्तर केवल इतना है कि संपन्न लोगों के ओझा और बाबा भी खाते-पीते वर्गों से आने लगे हैं ... धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलते हुए लेटेस्ट टेक्नोलोजी से संपन्न ! हाथों में पचास हजार का मोबाईल है तो उँगलियों में शनि निवारण हेतु गोमेद धारित अंगूठी भी है ! आज मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत मोटी तनखाहें लेने वाले अधिकारी, करोड़ों में खेलने वाले फिल्म और ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोग, बुद्धिजीवी समझे जाने वाले प्रोफेसर, आधुनिकता का पर्याय फैशन डिजायनर व इंटीरिअर डेकोरेटर वगैरह का तंत्र-मंत्र के प्रति विशवास देखकर कौन कह सकता है कि इनका ज्ञान, शिक्षा, आधुनिकता और शेष जगत से कोई रिश्ता भी है !

नके डिजाईनर कपड़े इनके आतंरिक खोखलेपन और उनके इस मानसिक दिवालियेपन को बस किसी तरह छुपा लेते हैं ! आज स्थिति यह है कि समाज के सबसे संपन्न तबकों के लोग अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए किसी भी तरह की हास्यास्पद और ऊलजलूल की सीमा तक जाने को तैयार हैं , हर तरह के टोटके करने को तैयार हैं !

मारा आज का पढ़ा-लिखा, संपन्न वर्ग जो ऊपर से तो अत्याधुनिक, आत्मविश्वासी दिखायी पड़ता है, मगर अन्दर से पिछडा और डरा हुआ है ! इसीलिये बाबाओं-तांत्रिकों के धंधे भी अब ज्यादा तेजी से पनप रहे हैं ! इन्हे मीडिया का भरपूर समर्थन भी मिल रहा है ! इनके पास आने वाले ऐसे लोग बहुत हो गए हैं, जिन्हें जल्दी से जल्दी बहुत ज्यादा पैसा चाहिए, बहुत बड़ी पदोन्नति चाहिए, अपने बच्चे का किसी ख़ास शिक्षा संस्थान में दाखिला चाहिए, किसी को अपने पति या पत्नी को किसी प्रेमिका या प्रेमी से चक्कर से छुड़वाना है तो किसी को पुत्र प्राप्ति के बिना स्वर्ग का द्वार बंद दिखायी दे रहा है !

स्थिति दर्शाती है कि जिस वर्ग ने आजादी के बाद समृद्धि की सबसे ज्यादा मलाई उल्टे-सीधे तरीके से बटोरी है, वही इस समय सबसे अधिक हताश और परेशान है क्योंकि उसे अपने सिवाय दुनिया में कुछ नहीं दिखता ! स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में इतनी तेजी से आई हैं कि स्त्री-पुरूष समीकरण बदल गए हैं और उससे जो नई-नई जटिलताएं पैदा हो रही हैं, उनसे न तो स्त्रियाँ निपट पा रही हैं और न पुरूष ! समस्या को समझने के बजाय इसका वे काल्पनिक समाधान ढूँढने में लगे हैं !

वर्ग के लोगों ने सफलता का गुरुमंत्र अपने पास रखने के लिए धार्मिक होकर देख लिया, साम्प्रदायिक होकर देख लिया, जातिवाद भी आजमाकर देख लिया, मगर समस्या वहीँ की वहीँ है और यह होना ही था ! बेईमानी, भ्रष्टाचार और आपाधापी से कमाया गया धन जीवन को निश्चिंतता नहीं दे पा रहा है ! शायद इसी से घबराकर और परिवर्तन की किसी भी मुहिम में शामिल होने में अक्षम इन वर्गों के लोग अब अतार्किकता और अंधविश्वास की शरण में हैं ताकि वहां से शायद कोई प्रकाश, कोई उजाला, कोई उम्मीद दिखायी दे जाए और उनका उद्धार हो जाए, लेकिन क्या ऐसा होगा ? क्या वक्त नहीं आ गया है कि लोग पूरे समाज की स्थिति की तमाम जटिलताओं को तर्कसंगत ढंग से समझने की कोशिश पहले से ज्यादा करें !

!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!*!