
'घर' एक वास्तु मात्र न होकर भावसूचक संज्ञा भी है ! घर से अधिक सजीव एवं घर से अधिक निर्जीव भला क्या हो सकता है ! अनगिनत भावनाओं और प्रतीकों का मिला-जुला रूप है घर !
"कमरा नंबर एक / जहाँ दो-दो सड़कों के दुःशासनी हाथ / उसकी दीवारें उतार लेने को / लपके ही रहते हैं / / कमरा नंबर दो / जहाँ खिड़की से आसमान दिखता है / धुप भी आती है / कमरा नंबर तीन जो आँगन में खुलता है / जिसका दरवाजा पूरे घर को / रौशनी की बाढ़ में तैरा सकता है !! मगर अफसोस कि / रौशनी के साथ-साथ / पडोसी घरों का धुआं भी / भीतर भर आता है "
उपरोक्त पंक्तियों में घर का बिम्ब उभरता है ! यह बिम्ब भारतीय घर का ही है ! यह घर प्राचीन भी है, मध्कालीन भी और समकालीन भी ! यह बिम्ब बहुत सुखद नहीं है ! साहित्य में 'घर' वह भी होता है जो घर की स्मृति से, घरेलु रिश्तों द्वारा निर्मित और परिभाषित होता है :

"घर/ हैं कहाँ जिनकी हम बात करते हैं/ घर की बातें/ सबकी अपनी हैं/ घर की बातें/ कोई किसी से नहीं करता/ जिनकी बातें होती हैं/ वे घर नहीं होते"
[अज्ञेय]
जैसा कि पहले ही कहा कि घर से अधिक सजीव और घर से अधिक निर्जीव क्या हो सकता है ? ईंट-गारे के बने चाहर- दीवारों को घर नहीं माना जा सकता ! घर के साथ जुड़े रहते हैं अनेकों रिश्ते - माँ, पिताजी, भाई, बहन, भाभी, चाचा, चाची ...... ! घर के साथ जुड़े रहते हैं अनेकों शब्द ..... प्रतीक्षा, प्रेम, सुरक्षा, नींद, भूख, भोजन, सुख-दुःख .............. :

"कहाँ भाग गया घर / साथ-साथ चलते हुए / इस शहर के फुटपाथों पर / हमने सपना देखा था / एक छोटे से घर का, / और जब सपना / घर बन गया, // हम अलग-अलग कमरों में बंट गए" !
जैसे घरों में हम सचमुच (अथवा स्मृति में) रहते हैं, वैसा ही घर साहित्य में भी रचते हैं ! साहित्य में हमारी स्म्रतियां, अनुभूतियाँ अपना घर ही तो खोजती हैं - बनाती हैं ! यदि हम अब एक साथ रहने वाले केवल एक उपभोक्ता समुदाय बन गए हैं - सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में अपने चेहरे की तलाश में भटकते आकार मात्र - तो साहित्य इसे प्रतिबिंबित करेगा ही :
"ये दीवारें / मेरा घर हैं / वह घर / जिसके सपने देखती मैं / विक्षिप्तता की सुरंग में भटक गयी थी / इसकी छत के नीचे खड़ी / सोचती हूँ / यह तो मेरा सपना नहीं है / न ही भाव बोध / न ही कलात्मक रुचियों की अभिव्यक्ति" - (कुसुम अंसल)

यदि सचमुच हमारा अपना विश्वास खंडित हो चुका है, पारंपरिक जीवन मूल्य भूल चुके हैं, स्वयं अपने 'आत्म' से निर्वासित हो चुके हैं तो यह आत्मनिर्वासन हमारे साहित्य को प्रभावित किये बिना कैसे रहेगा ? मुझे 'इंदिरा राठौर जी" की कविता याद आ रही है :
वही घर, वही लोग / लेकिन घर अब बासी लगता है / वैचारिक प्रगतिशीलता के आवरण में / सब दकियानूसी लगता है / बच्चे जनता है, भटकता है रोजगार के लिए / रोते शिकायत करते / आखिर ख़त्म हो जाता है घर /// हर कोने-अंतरे टंगे रहते हैं प्रश्न / मकडी के जालों से / घर चाहता है 'बड़े लोगों में' आयें नजर हम / समाज को दिखाएँ रूआब अपना / पैसा, ताकत, प्रतिष्ठा .... / घर अगर संकुचित है यहीं तक / तो यह मेरा घर नहीं है ..... यह मेरा घर नहीं है "
जिस आधुनिक सभ्यता के घिराव में हम आ गए हैं, उसमें भारतीय आदर्शवादी घर की गुंजाईश ही कहाँ बची है ! इस आधुनिक सभ्यता का जो कठोरतम वज्रपात हुआ है, वह तो इस घर की गृहिणी पर ही हुआ है ! निर्मल वर्मा जी की एक कहानी में यह मानसिक द्वंद स्पष्ट दिखाई देता है :
'घर कहीं नहीं था ! दुःख था ... बाँझ दुःख, जिसका कोई फल नहीं था, जो एक-दुसरे से टकराकर ख़त्म हो जाता है और हम उसे नहीं देख पाते जब तक आधा रिश्ता पानी में नहीं डूब जाता !'

आधुनिक साहित्य में 'भारतीय घर' तेजी से हिचकोले खा रहा है ! कारण साफ है : समाज को स्त्री ने जन्म दिया ! दलबद्ध भाव से रहने के प्रति निष्ठां होने के कारण वह उसी समाज की अनुचरी हो गयी ! पुरुष समाज से भागना चाहता था ! स्त्री ने अपना हक़ त्यागकर उसे समाज में रखा - उसके हाथ में समाज की नकेल दे दी ! .... आज वह देखती है कि उसी के बुने हुए जाल ने उसे बुरी तरह जकड डाला है, जिससे निकलने के लिए उसकी छटपटाहट निरंतर जारी है !
गुजरे कई वर्षों के दौरान हमारे यहाँ जीवन का काफी तिरस्कार सा रहा, जिसका परिणाम हमें भौतिक दासता के रूप में ही नहीं बल्कि स्वयं अपने विचार, दर्शन और संवेदन की भी पंगुता के रूप में भुगतना पड़ रहा है ! घर की याद भी तभी है जब घर नहीं होता अथवा घर, घर जैसा नहीं होता ! श्रीकांत जी की कविता की पंक्ति याद आ रही हैं :
मैं महुए के वन में एक कंडे सा /सुलगना, धुन्धुवाना चाहता हूँ /मैं घर जाना चाहता हूँ..
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की 'यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी' शीर्षक कविता भी याद आ रही है, जिसमें एक खोये हुए घर का विषाद है और उसे तलाश करने की छटपटाहट भी ! रवींद्र नाथ ठाकुर जी की लिखी एक कहानी है - 'होमकमिंग' ! कहानी का मुख्य पात्र 'जतिन चक्रवर्ती' दिन भर घर से बाहर भटकता और शैतानियाँ करता रहता है ! उसे सुधारने के लिए उसके माँ-बाप उसे कलकत्ता भेज देते हैं, जहाँ उसका बिलकुल मन नहीं लगता ! वह अपने घर के लिए तड़पता हुआ एक-एक दिन गिनता रहता है कि कब छुटियाँ मिलें और कब वह घर पहुंचे ! आखिर एक दिन उसे छुट्टी मिल जाती है किन्तु म्रत्यु शय्या पर ! बेहोशी की सी बीमारावस्था में घर-घर बड- बडाता हुआ वह चल बसता है !

ऐसा लगता है कि जतिन चक्रवर्ती की इस विडम्बनापूर्ण नियति को हमारे अधिकाँश लेखकों ने स्वीकार कर लिया है ! किन्तु वे घर का दुखडा भी नहीं रोते, न ही उसकी नुमाईश करते हैं ! वे स्थिति का सामना करते हैं और पुनर्वास का भी ! अज्ञेय जी का काव्य संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा है' में ऐसा ही कुछ है :
"घर मेरा कोई है नहीं / घर मुझे चाहिए / घर के भीतर प्रकाश हो / इसकी भी मुझे चिंता नहीं / प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो / इसी की मुझे तलाश है / ऐसा कोई घर आपने देखा है ? / न देखा हो / तो भी हम / बेघरों की परस्पर हमदर्दी के / घेरे में तो रह ही सकते हैं "
'बेघरों की परस्पर हमदर्दी का घेरा' अपने आप में प्रकाश का घेरा चाहे न भी हो, किन्तु वह वह उसकी अनिवार्य भूमिका निश्चय ही है ! कम से कम वह उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का पहला उपक्रम तो है ही ! उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का - जो प्राकृतिक नहीं, मानव निर्मित सांस्कृतिक अँधेरा :
"मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है / और गली के सिरे पर लगा गली का नाम हटाया है / और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है / पर अगर तुम्हे मुझसे जरूर मिलना है / तो हर देश के शहर की हर गली का हर दरवाजा खटखटाओ ..... / यह एक शाप है, एक वरदान है / जहाँ भी स्वतंत्र रूह की झलक मिले / समझ जाना वह मेरा घर है !"
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umda post. aabhaar.
जवाब देंहटाएंप्रतिक्रया की आवश्यकता नहीं है ये आपकी बात सही है लेकिन आपने इतना अच्छा लिखा है तो बधाई तो स्वीकार कर लीजिये .
जवाब देंहटाएंprakaash ji
जवाब देंहटाएंmain nishabd hoon . aapki is rachna par .ghar apne aap me ek sansaar smaye hue hota hai .. aapne itni acchi vivechana kar daali ki kuch poochiye mat ..
regards
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
ये पोस्ट हमने उलटी पढने शुरू की ...... मेरी प्रिय अमृता जी की रचना से फिर और पड़ने की इच्छा हुई ....तो आगे बढती गई .........सच घर को लेकर समय & सोच के साथ परिवर्तन तो आये है ....पर ये लाज़मी भी है
जवाब देंहटाएंहम अभिभूत है इस पोस्ट से .......पन्ना बुकमार्क करने जैसा है ..कई फलसफे एक साथ जमा करने के लिए शुक्रिया
जवाब देंहटाएंहर मायने में बहुत ही सुन्दर पोस्ट। क्या नही है इस पोस्ट में। बहुत दिनों बाद आना हुआ या आपने बहुत दिनों बाद कुछ लिखा है पता नही। पर पढकर दिल खुश हो गया जी।
जवाब देंहटाएंमाई डियर इतने दिन बाद और इतनी सीरियस पोस्ट.
जवाब देंहटाएंक्या ब्लॉग वर्ल्ड में इस तरह का चिंतन भी होता है ???
मूड सही तो है न ?
लेकिन यार लिखा बहुत शानदार है. बहुत गहरी पड़ताल और विवेचना की है. एक लेख में इतना विस्तृत तरह से सभी पहलुओं को समेटना सचमुच करिश्मा है.
निर्मल वर्मा जी की ये लाईन ठहर कर सोचने पर विवश करती हैं - 'घर कहीं नहीं था ! दुःख था ... बाँझ दुःख, जिसका कोई फल नहीं था, जो एक-दुसरे से टकराकर ख़त्म हो जाता है, और हम उसे नहीं देख पाते जब तक आधा रिश्ता पानी में नहीं डूब जाता !'
बहुत अनोखी एवं उत्कृष्ट पोस्ट
खुश रहो ...मस्त रहो बधाई के साथ
ज्ञानवर्धक पोस्ट.....बहुत बहुत आभार!
जवाब देंहटाएं'कोई घर सिर्फ मकान बन कर न रह जाये यह प्रयास रहना चाहिए.
जवाब देंहटाएं-आप ने बहुत ही अच्छा संग्रहणीय लेख लिखा है.
ये कुछ पंक्तियाँ बहुत ही पसंद आयीं..-:'घर सजीव भी है घर निर्जीव भी!.../हम उसे नहीं देख पाते जब तक आधा रिश्ता पानी में नहीं डूब जाता !.../जहाँ भी स्वतंत्र रूह की झलक मिले / समझ जाना वह मेरा घर है!"
-आभार
जबरदस्त...बिना कहे जा नहीं पा रहे हैं.
जवाब देंहटाएंइतनी सुन्दर और व्यवस्थित पोस्ट मैंने कभी नहीं देखी.
जवाब देंहटाएंघर जैसे संजीदा विषय पर आपने इतनी गहराई में डूबकर लिखा कि दोबारा पढना पड़ा. लेख की पहली पंक्ति ही मन को आकृष्ट करती है - 'घर से अधिक सजीव एवं घर से अधिक निर्जीव भला क्या हो सकता है'
ज्यादा कुछ कह पाने में असमर्थ हूँ. लेकिन आपको दिल से बधाई देता हूँ इतने सारगर्भित लेखन के लिए.
शुभ-कामनाओं सहित
घर के बारे में आपने इतनी शिद्दत और तफसील से बयां किया है कि
जवाब देंहटाएंहैरत में हूँ. आपने बीच-बीच में जो कविताओं की लाईनें लिखी हैं वो इस आर्टिकल को और भी ज्यादा सुन्दर बना रही हैं.
कुल मिलाकर बेहद खूबसूरत और संजीदा पोस्ट है
शुक्रिया
अरे वाह, घर को कितने रूपों और कितने एंगल से देखा जा सकता है, आज पहली बार पता चला।
जवाब देंहटाएंइस महत्वपूर्ण पोस्ट के लिए बहुत बहुत मुबारकबाद स्वीकारें।
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बोटी-बोटी जिस्म नुचवाना कैसा लगता होगा?
इस बार कि आपकी पोस्ट गजब की है ....u know रोज एक बार पढ़ती हूँ ...जब पहली बार पढ़ा तभी निचे लिखी कुछ पंक्तिया अपने आप ही लिख गयी .....
जवाब देंहटाएंआपने तो प्रतिकिया न लिखने को कहा....लेकिन इस पोस्ट को पढने के बाद स्वतः ही प्रतिक्रिया लिखती जा रही है...
बहुत सुन्दर लिखा आपने...सचमुच दिल को छु लेने वाला पोस्ट
घर और मकान का भेद ...सही में ये दर्द सिर्फ वही समझ सकता है जिसे अकेले रहना पड़ता है.....ईंट और सीमेंट से हम सिर्फ मकान बना सकते है......घर तो तभी बनता है जब उसमे रिश्तों की खुशबू हो....लेकिन अफ़सोस आज सारे रिश्ते कमरों में बँट कर रह गये है..... सच कहा बिलकुल सच...अब घर घर जैसा कहाँ.....
शुक्रिया,
शुभम .
प्रकाश जी आपने संग्रहनीय लेख लिखा है और हर मायने में प्रशंसनीय भी. अपने विचारों के साथ बीच-बीच कविताओं की पंक्तियाँ देकर इस लेख को अतिसुन्दर बना दिया है. प्रत्येक इंसान के लिए घर एक सपना होता है . और सपने आम तौर पर झूठे ही होते हैं
जवाब देंहटाएंयादगार लेखन
आपने बहुत ही उमुन्दा लिखा है गोविंद जी!पहली बार मेरा यहाँ आना हुआ है. बहुत ही सुंदर .
जवाब देंहटाएंगोविंद जी
सुख, समृद्धि और शान्ति का आगमन हो
जीवन प्रकाश से आलोकित हो !
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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए
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ताऊ किसी दूसरे पर तोहमत नही लगाता-
रामपुरियाजी
हमारे सहवर्ती हिन्दी ब्लोग पर
मुम्बई-टाईगर
ताऊ की भुमिका का बेखुबी से निर्वाह कर रहे श्री पी.सी.रामपुरिया जी (मुदगल)
जो किसी परिचय के मोहताज नही हैं,
ने हमको एक छोटी सी बातचीत का समय दिया।
दिपावली के शुभ अवसर पर आपको भी ताऊ से रुबरू करवाते हैं।
पढना ना भूले। आज सुबह 4 बजे.
♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥ ♥
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए
हे! प्रभु यह तेरापन्थ
मुम्बई-टाईगर
द फोटू गैलेरी
महाप्रेम
माई ब्लोग
SELECTION & COLLECTION
दीप की स्वर्णिम आभा
जवाब देंहटाएंआपके भाग्य की और कर्म
की द्विआभा.....
युग की सफ़लता की
त्रिवेणी
आपके जीवन से आरम्भ हो
मंगल कामना के साथ
प्रकाश जी आज कल कुछ अलग- थलग सा नया- नया सा लिख रहे ....अच्छा लगा देख कर .....!!
जवाब देंहटाएंगोविन्द जी पहली बार शायद इस ब्लोग पर आयी हूँ ये प्रतिक्रिया नहीं है ऐसी सुन्दर और उच्चकोटि की रचना पर मैं प्रतिक्रिया दे ही नहीं सकती मगर ऐसी रचनाओं की आज समाज को बहुत जरूरत है बहुत बहुत धन्यवाद इस अनूठी रचना के लिये।
जवाब देंहटाएंब्लॉग्गिंग में जिस गंभीरता की जरूरत है वो आप कर रहे हैं....चिंतन पूर्ण पोस्ट के लिए बधाई.
जवाब देंहटाएंItni achhi jankari de aapne or kaha ki pratikrya deni ki jarurat nahi. kya kahana!
जवाब देंहटाएंBahut achhi baat hai.
Sabhar
बड़ी रिसर्च कर के आपने परोसा है। बहुत अच्छ लगा पर आज के ज़माने में बड़े-बड़े आलीशान घर तो हैं पर रहने वाला कोई नहीं है। पति पत्नी उस घर के कर्ज को चुकता करने के लिए सुबह से शाम तक काम करते हैं और बच्चे डे केयर में। घर में रहे कौन.....
जवाब देंहटाएंsundar aur sarthak prastuti...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिखा है आपने! बड़े ही सुंदर रूप से प्रस्तुत किया है जो काबिले तारीफ है ! इस उम्दा और बेहतरीन पोस्ट के लिए बधाई! मेरे इस ब्लॉग पर आपका स्वागत है-
जवाब देंहटाएंhttp://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
वाकई, एक घर कितने कितने रूपों में हमारे सामने आता है।
जवाब देंहटाएंअद्भुत चित्र संयोजन, विषय-चयन और प्रशंशनीय प्रस्तुति........
जवाब देंहटाएंइस शमा को जलाए रखें।
जवाब देंहटाएं--------
बहुत घातक है प्रेमचन्द्र का मंत्र।
हिन्दी ब्लॉगर्स अवार्ड-नॉमिनेशन खुला है।
Ghar par itna sundar lekh.. Bahut hi achha laga. or kyun nahi ghar hi to hai jahan se yah saara sansar banta hai. Aapka chintan sarahaniya hai...
जवाब देंहटाएंhardik shubhkanayen
prakash ji, aaj main aapko vishesh taur par dhanyawaad karta hun , aaj mere blog ko ek varsh poora hua aap meri pratham post ke tippnikaar hain, aapki hausla afjai aur protsahan se hi aaj main ek varsh blogging men poorn kar saka hun aapka aabhaari hun ,punah dhanyawaad.
जवाब देंहटाएंBahut hi badiya Prakash ji..jitni khubsurti se aapne apna profile taiyar kiya hai utni hi khubsurat aapka blog presentation hai..
जवाब देंहटाएंbahut hi accha laga...
क्रिया है तो प्रतिक्रिया तो होगी ही.
जवाब देंहटाएंghar ko kitni gahrayi se bataya hai
जवाब देंहटाएंkavita ho yaa kahani aur ghar ka badalta roop
sabke khyaal aur sapno ka ghar
sakun dene wala ghar
aapne adhbhut shabdon mein baat rakhi hai
vicharon ka bejod taaltamay
ने अपने घर का नंबर मिटाया है / और गली के सिरे पर लगा गली का नाम हटाया है / और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है / पर अगर तुम्हे मुझसे जरूर मिलना है / तो हर देश के शहर की हर गली का हर दरवाजा खटखटाओ ..... / यह एक शाप है, एक वरदान है / जहाँ भी स्वतंत्र रूह की झलक मिले / समझ जाना वह मेरा घर है !"
जवाब देंहटाएंBahut sundar!
Itna sundar likha hai aapne aur chitra bhi itne sundar, bahut mehant se bahut samay lagakar itna khoobsurat nazara hai... bahut shubhkamnayne.
जवाब देंहटाएंDer se hi sahi prantu blog padhkar bahut achha laga...
bahut shubhkamnayne..
Pyar ke rang se bharo pichkari,
जवाब देंहटाएंsneh ke rang do duniya sari,
ye rang na jane koi jaat na koi boli,
aapko mubarak ho aapno ki holi.
-alka
आप अपना ब्लॉग नियमित लिखते क्यों नहीं??
जवाब देंहटाएंअगली पोस्ट का इंतज़ार! :)
''होली की ढेर सारी शुभकामनाएँ''
आदर्णीय महोदय, होली की बधाई और शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंमुझे भी आपके अगले पोस्ट का इंतजार रहेगा.
आपको और आपके परिवार को होली की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंmook ho gaye hain , aur kya pratikriya hogee .
जवाब देंहटाएंpoora saar to yahi nikal aaya ,ghar sa ghar ,ab kahan hai ghar ,bahut khoob aalekh ,aham hai sabko samjhne ki jaroort bhi hai
जवाब देंहटाएंहा...हा...हा...हा...दिमाग तो मेरा भी खराब हो गया......मगर हाँ मज़ा आ गया.......!
जवाब देंहटाएंटिपण्णी करूँ.....??बाप रे बाप.....क्या बात.....अद्भुत....गज़ब.....लाज़वाब.....उई माँ.....जबरदस्त.....बेहतरीन.....उम्मीद से ज्यादा......सुन्दर.....वाह...वाह.....जो अच्छी लगें छांट लें.....वैसे मैंने सारी इसी रचना के लिए दी हैं.....!!!!
'घर' एक वास्तु मात्र न होकर भावसूचक संज्ञा भी है ! घर से अधिक सजीव एवं घर से अधिक निर्जीव भला क्या हो सकता है ! अनगिनत भावनाओं और प्रतीकों का मिला-जुला रूप है घर !.... एक ही साथ कितने मनोभाव. कुछ मीठा, कुछ खट्टा....बढ़िया है.
जवाब देंहटाएं_________
"शब्द-शिखर" पर सुप्रीम कोर्ट में भी महिलाओं के लिए आरक्षण
बेहतरीन!!!
जवाब देंहटाएं"RAM"
अपनी पोस्ट 'bhaagen भी तो..]पर आप की टिप्पणी मिली .बहुत अच्छी लगी ख़ास कर आखिर में लिखी कविता की पंक्तियाँ.
जवाब देंहटाएंकभी कभी पोस्ट से अधिक टिप्पणी अधिक सार्थक हो जाती हैं ,सच लगा.
आप का abhar .
इत्ता लम्बा ..इसे पढने के लिए अभी और पढाई करनी होगी मुझे.
जवाब देंहटाएं________________
'पाखी की दुनिया' में इस बार माउन्ट हैरियट की सैर करना न भूलें !!
जगजीत सिंह की एक ग़ज़ल से बेहतर शायद और कोई टिप्पणी ना हो इस लेख के लिए-
जवाब देंहटाएं"पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है..अपने ही घर में किसी दुसरे घर के हम हैं"
"shaandar"
जवाब देंहटाएंमैं चिटठा जगत की दुनिया में नया हूँ. मेरे द्वारा भी एक छोटा सा प्रयास किया गया है. मेरी रचनाओ पर भी आप की समालोचनात्मक टिप्पणिया चाहूँगा. एवं यह भी जानना चाहूँगा की किस प्रकार मैं भी अपने चिट्ठे को लोगो तक पंहुचा सकता हूँ. आपकी सभी की मदद एवं टिप्पणिओं की आशा में आपका अभिनव पाण्डेय
यह रहा मेरा चिटठा:-
सुनहरीयादें
bahut sunder post. ise padhkar afsos ho raha hai ki itne dino ke baad kyo padha ! vaah! aaj maine ghar vishay par hii ek kavita post kii hai. yahaan padha to ehsaas hua ki maine kitna km likha hai..!
जवाब देंहटाएं’तस्लीम’ द्वारा आयोजित चित्र पहेली-86 को बूझने की हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएं----------------
सावन आया, तरह-तरह के साँप ही नहीं पाँच फन वाला नाग भी लाया।
बहुत सुन्दर लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंमित्रता दिवस की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनाएँ!
bahut hi umda post....
जवाब देंहटाएंMeri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....
A Silent Silence : Zindgi Se Mat Jhagad..
Banned Area News : Zardari shoe thrower justifies his London action
Get your book published.. become an author..let the world know of your creativity also, get your own blog book!
जवाब देंहटाएंwww.hummingwords.in
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स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ !
कोई ये कैसे बताए , क वो तनहा क्यों है
जवाब देंहटाएंवो जो अपना था, वही और किसी का क्यों है
यही दुनिया है तो फ़िर, ऐसी ये दुनिया क्यों है
यही होता है तो, आखिर यही होता क्यों है...
किसी की याद में दुनिया को हैं भुलाये हुए,
ज़माना गुज़रा है अपना ख्याल आये हुए .
मेरी इन बातों पर कुछ कहियेगा?
पिछले पोस्ट पर आप की लिखी कहानी बहुत पसंद आयी है.
आज के ज़माने में प्यार के ऐसे इम्तिहाँ कौन लेता है और कौन देता है?
शायद टिप्पणी की अभी भी गुंजाइश हो. घर के कमरों को एक, दो, तीन नंबर दे देने से वह मकान लगने लगा है. बहुत खूब है 'ये तेरा घर ये मेरा घर'
जवाब देंहटाएंप्रकाश गोविंद जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
घर सा घर … अब कहां है घर आलेख कई बार पढ़ कर जा चुका हूं पहले भी । निस्संदेह बहुत मेहनत से तैयार किया गया रूपक है ।
लेकिन बंधु , अब कुछ नया भी तो डालें ।
एक दो पाठकों के तो दो दो तीन तीन बार कमेंट आ चुके ।
शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
bahut hi khoobsurat post prakaash ji...makaan to bahut milte hain ... par ghar nahi ... badhai sweekarein
जवाब देंहटाएंaapne mere blog par darshan diye aur itne sunder shabdon mein meri rachna ko sarhya ... uske liye bahut bahut dhanyawaad ....
appki post bahut achhi lagi ... isliya aapka blog follow kar rahi hoon .. taaki aaage bhi padhne ko mile ...
.
जवाब देंहटाएं"मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है / और गली के सिरे पर लगा गली का नाम हटाया है / और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है / पर अगर तुम्हे मुझसे जरूर मिलना है / तो हर देश के शहर की हर गली का हर दरवाजा खटखटाओ ..... / यह एक शाप है, एक वरदान है / जहाँ भी स्वतंत्र रूह की झलक मिले / समझ जाना वह मेरा घर है !"
speechless !
.
bahut sunder.
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंRef---दुनिया का कोई भी व्यक्ति स्वयं को पूर्णतया व्यक्त नही कर सकता ! इसलिए मुझे जानने के लिए आपको थोड़ी देर मेरे साथ रहना होगा !...
Beautiful lines from your profile.
Regards,
.
बहुत सुन्दर पोस्ट...सही कहा है अब घर घर कहाँ है...
जवाब देंहटाएंबहुत कोशिश की
मैंने एक घर बनाने की,
लेकिन कहीं नहीं मिला
स्नेह का गारा,
विश्वास की ईंट,
और सम्मान की छत.
जो बना
वह रह गया बनकर
केवल एक मकान,
जो इंतज़ार में है
भरभरा कर गिरने को
स्वार्थ और लालच के
एक हलके भूकम्प के
झटके से.
http://www.sharmakailashc.blogspot.com/
कल 20/06/2011को आपकी एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की गयी है-
जवाब देंहटाएंआपके विचारों का स्वागत है .
धन्यवाद
नयी-पुरानी हलचल
Prakash Govind ji
जवाब देंहटाएंAgyey ji ko padhna aur phir phir padhna ek sukhad v gyanvardak anubhav hai. aapka yeh lekh padhte padhte hain kahin to soch bhi thithak kar ruk jati hai ki shabd shilpkar kis kadar is kushalta se shabdon ko sajeev bana pate hai ki har likh bimb sajeev hokar raks karta hai. bahut hi sunder v kushal abhivyakti ke liye badhayi
mai abhibhoot hoon aapki post padh kar aur khinn ki itne din kyon na padh paai mai ise. aapki bhavabhivyakti adbhut hai aur aapke lekh me gahan adhyayan aur vyaapak pathan ka sansaar dikhta hai. bahut badhai.
जवाब देंहटाएंआपकी लघुकथाएं कथ्य-शिल्प के किसी भी पैमाने पर कमज़ोर नहीं। जीवन्त और यादगार रचनाएं। सबसे खास यह कि इन्हें पढ़ते हुए ढाई दशक पहले का वह दौर आंखों के सामने आ गया है जब हम भी लघुकथा विधा मे सक्रिय थे। उसी दौर की कुछ रचनाओं का लिंक दे रहा हूं ( लघुकथा.कॉम के सचयन खंड मे हैं ये ) : http://laghukatha.com/sanchian-24.htm
जवाब देंहटाएंशुभ दीपावली,
जवाब देंहटाएं