मंगलवार, जुलाई 23, 2013

अकेलापन (कविता)


बटन पुश कर देते हैं 
स्क्रीन चमकने लगती है 
उँगलियाँ हिलने लगती हैं 
हम गुम हो जाते हैं अनजान दुनिया में !

बाहर की दुनिया क्या सचमुच
इतनी नीरस और उबाऊ है कि 
हम अपने चिर-परिचित दायरों में
रोमांच खोजने लग जाते हैं?

जीते-जागते इंसान को छोड़कर
उससे नज़रें बचा कर
सैकड़ों लोगों का सर्कस देखना 
ज्यादा अच्छा लगता है

सामने बैठे इंसान से मुस्करा कर
दो बोल बोलने के बजाय
किसी दीवार पर
"LOL", "fantastic", "miss you"
लिखना ज्यादा अच्छा लगता है

बिस्तर से सुबह उठते ही
बटन पुश कर देते हैं 
स्क्रीन चमकने लगती है 
उँगलियाँ हिलने लगती हैं 
हम गम हो जाते हैं अनजान दुनिया में !

समय के साथ उम्र ढल जाती है
मॉडल बदल जाते हैं, प्लान बदल जाते हैं
चार-चार स्मार्टफोन घर में हो जाते हैं
पहले ही कम बोलते थे
अब मरघट सा छा जाता है
घर में ही SMS भेजे जाने लगते हैं

और एक दिन बैटरी चुक जाती है
चार्जर भी जवाब दे जाता है
तो अकेलापन ही अकेलापन
नितांत अकेलापन ही नज़र आता है
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-- प्रकाश गोविन्द 
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1 टिप्पणी:

  1. आपने कविता में आज के समय की एकदम सही तस्वीर पेश की है
    बेहतरीन कविता दिल को छू गयी

    जवाब देंहटाएं

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