झूठ-फरेब
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एक दिन में कई बार
जता ही देते हैं हम
कितना खराब हो गया है समय
मजा यह है कि बगैर झूठ-फरेब के
एक दिन भी नहीं काट पाते !
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खुशफहमी
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घर की रस्मों से डर रही होगी
भीगी पलकें छुपा के आँचल में
वो मुझे याद कर रही होगी !
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झूठा सच
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रात सूरज था मेरे हाथों में
सुबह को सोचता हूँ किससे कहूँ
कौन आएगा मेरी बातों में !
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अहसास
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जिंदगी कट रही है कुछ जैसे
इम्तहाँ का रिजल्ट आने पर
कोई बच्चा उदास हो जैसे !
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-- प्रकाश गोविन्द
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बहुत ही सुन्दर अलग-अलग अहसास। टिप्पणी हेतु धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंKhushfehmi ... maza aa gaya poems padh kar Prakash Bhai
जवाब देंहटाएंsabhi rachnayen ek se badhkar ek hain
जवाब देंहटाएंbahut sundar
sab pasand aayi