'घर' एक वास्तु मात्र न होकर भावसूचक संज्ञा भी है ! घर से अधिक सजीव एवं घर से अधिक निर्जीव भला क्या हो सकता है ! अनगिनत भावनाओं और प्रतीकों का मिला-जुला रूप है घर !
"कमरा नंबर एक / जहाँ दो-दो सड़कों के दुःशासनी हाथ / उसकी दीवारें उतार लेने को / लपके ही रहते हैं / / कमरा नंबर दो / जहाँ खिड़की से आसमान दिखता है / धुप भी आती है / कमरा नंबर तीन जो आँगन में खुलता है / जिसका दरवाजा पूरे घर को / रौशनी की बाढ़ में तैरा सकता है !! मगर अफसोस कि / रौशनी के साथ-साथ / पडोसी घरों का धुआं भी / भीतर भर आता है "
उपरोक्त पंक्तियों में घर का बिम्ब उभरता है ! यह बिम्ब भारतीय घर का ही है ! यह घर प्राचीन भी है, मध्कालीन भी और समकालीन भी ! यह बिम्ब बहुत सुखद नहीं है ! साहित्य में 'घर' वह भी होता है जो घर की स्मृति से, घरेलु रिश्तों द्वारा निर्मित और परिभाषित होता है :
"घर/ हैं कहाँ जिनकी हम बात करते हैं/ घर की बातें/ सबकी अपनी हैं/ घर की बातें/ कोई किसी से नहीं करता/ जिनकी बातें होती हैं/ वे घर नहीं होते"
[अज्ञेय]
जैसा कि पहले ही कहा कि घर से अधिक सजीव और घर से अधिक निर्जीव क्या हो सकता है ? ईंट-गारे के बने चाहर- दीवारों को घर नहीं माना जा सकता ! घर के साथ जुड़े रहते हैं अनेकों रिश्ते - माँ, पिताजी, भाई, बहन, भाभी, चाचा, चाची ...... ! घर के साथ जुड़े रहते हैं अनेकों शब्द ..... प्रतीक्षा, प्रेम, सुरक्षा, नींद, भूख, भोजन, सुख-दुःख .............. :
"कहाँ भाग गया घर / साथ-साथ चलते हुए / इस शहर के फुटपाथों पर / हमने सपना देखा था / एक छोटे से घर का, / और जब सपना / घर बन गया, // हम अलग-अलग कमरों में बंट गए" !
जैसे घरों में हम सचमुच (अथवा स्मृति में) रहते हैं, वैसा ही घर साहित्य में भी रचते हैं ! साहित्य में हमारी स्म्रतियां, अनुभूतियाँ अपना घर ही तो खोजती हैं - बनाती हैं ! यदि हम अब एक साथ रहने वाले केवल एक उपभोक्ता समुदाय बन गए हैं - सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में अपने चेहरे की तलाश में भटकते आकार मात्र - तो साहित्य इसे प्रतिबिंबित करेगा ही :
"ये दीवारें / मेरा घर हैं / वह घर / जिसके सपने देखती मैं / विक्षिप्तता की सुरंग में भटक गयी थी / इसकी छत के नीचे खड़ी / सोचती हूँ / यह तो मेरा सपना नहीं है / न ही भाव बोध / न ही कलात्मक रुचियों की अभिव्यक्ति" - (कुसुम अंसल)
यदि सचमुच हमारा अपना विश्वास खंडित हो चुका है, पारंपरिक जीवन मूल्य भूल चुके हैं, स्वयं अपने 'आत्म' से निर्वासित हो चुके हैं तो यह आत्मनिर्वासन हमारे साहित्य को प्रभावित किये बिना कैसे रहेगा ? मुझे 'इंदिरा राठौर जी" की कविता याद आ रही है :
वही घर, वही लोग / लेकिन घर अब बासी लगता है / वैचारिक प्रगतिशीलता के आवरण में / सब दकियानूसी लगता है / बच्चे जनता है, भटकता है रोजगार के लिए / रोते शिकायत करते / आखिर ख़त्म हो जाता है घर /// हर कोने-अंतरे टंगे रहते हैं प्रश्न / मकडी के जालों से / घर चाहता है 'बड़े लोगों में' आयें नजर हम / समाज को दिखाएँ रूआब अपना / पैसा, ताकत, प्रतिष्ठा .... / घर अगर संकुचित है यहीं तक / तो यह मेरा घर नहीं है ..... यह मेरा घर नहीं है "
जिस आधुनिक सभ्यता के घिराव में हम आ गए हैं, उसमें भारतीय आदर्शवादी घर की गुंजाईश ही कहाँ बची है ! इस आधुनिक सभ्यता का जो कठोरतम वज्रपात हुआ है, वह तो इस घर की गृहिणी पर ही हुआ है ! निर्मल वर्मा जी की एक कहानी में यह मानसिक द्वंद स्पष्ट दिखाई देता है :
'घर कहीं नहीं था ! दुःख था ... बाँझ दुःख, जिसका कोई फल नहीं था, जो एक-दुसरे से टकराकर ख़त्म हो जाता है और हम उसे नहीं देख पाते जब तक आधा रिश्ता पानी में नहीं डूब जाता !'
आधुनिक साहित्य में 'भारतीय घर' तेजी से हिचकोले खा रहा है ! कारण साफ है : समाज को स्त्री ने जन्म दिया ! दलबद्ध भाव से रहने के प्रति निष्ठां होने के कारण वह उसी समाज की अनुचरी हो गयी ! पुरुष समाज से भागना चाहता था ! स्त्री ने अपना हक़ त्यागकर उसे समाज में रखा - उसके हाथ में समाज की नकेल दे दी ! .... आज वह देखती है कि उसी के बुने हुए जाल ने उसे बुरी तरह जकड डाला है, जिससे निकलने के लिए उसकी छटपटाहट निरंतर जारी है !
गुजरे कई वर्षों के दौरान हमारे यहाँ जीवन का काफी तिरस्कार सा रहा, जिसका परिणाम हमें भौतिक दासता के रूप में ही नहीं बल्कि स्वयं अपने विचार, दर्शन और संवेदन की भी पंगुता के रूप में भुगतना पड़ रहा है ! घर की याद भी तभी है जब घर नहीं होता अथवा घर, घर जैसा नहीं होता ! श्रीकांत जी की कविता की पंक्ति याद आ रही हैं :
मैं महुए के वन में एक कंडे सा /सुलगना, धुन्धुवाना चाहता हूँ /मैं घर जाना चाहता हूँ..
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की 'यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी' शीर्षक कविता भी याद आ रही है, जिसमें एक खोये हुए घर का विषाद है और उसे तलाश करने की छटपटाहट भी ! रवींद्र नाथ ठाकुर जी की लिखी एक कहानी है - 'होमकमिंग' ! कहानी का मुख्य पात्र 'जतिन चक्रवर्ती' दिन भर घर से बाहर भटकता और शैतानियाँ करता रहता है ! उसे सुधारने के लिए उसके माँ-बाप उसे कलकत्ता भेज देते हैं, जहाँ उसका बिलकुल मन नहीं लगता ! वह अपने घर के लिए तड़पता हुआ एक-एक दिन गिनता रहता है कि कब छुटियाँ मिलें और कब वह घर पहुंचे ! आखिर एक दिन उसे छुट्टी मिल जाती है किन्तु म्रत्यु शय्या पर ! बेहोशी की सी बीमारावस्था में घर-घर बड- बडाता हुआ वह चल बसता है !
ऐसा लगता है कि जतिन चक्रवर्ती की इस विडम्बनापूर्ण नियति को हमारे अधिकाँश लेखकों ने स्वीकार कर लिया है ! किन्तु वे घर का दुखडा भी नहीं रोते, न ही उसकी नुमाईश करते हैं ! वे स्थिति का सामना करते हैं और पुनर्वास का भी ! अज्ञेय जी का काव्य संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा है' में ऐसा ही कुछ है :
"घर मेरा कोई है नहीं / घर मुझे चाहिए / घर के भीतर प्रकाश हो / इसकी भी मुझे चिंता नहीं / प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो / इसी की मुझे तलाश है / ऐसा कोई घर आपने देखा है ? / न देखा हो / तो भी हम / बेघरों की परस्पर हमदर्दी के / घेरे में तो रह ही सकते हैं "
'बेघरों की परस्पर हमदर्दी का घेरा' अपने आप में प्रकाश का घेरा चाहे न भी हो, किन्तु वह वह उसकी अनिवार्य भूमिका निश्चय ही है ! कम से कम वह उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का पहला उपक्रम तो है ही ! उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का - जो प्राकृतिक नहीं, मानव निर्मित सांस्कृतिक अँधेरा :
"मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है / और गली के सिरे पर लगा गली का नाम हटाया है / और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है / पर अगर तुम्हे मुझसे जरूर मिलना है / तो हर देश के शहर की हर गली का हर दरवाजा खटखटाओ ..... / यह एक शाप है, एक वरदान है / जहाँ भी स्वतंत्र रूह की झलक मिले / समझ जाना वह मेरा घर है !"
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