बुधवार, सितंबर 09, 2015

मानवता को समर्पित एक शख्स


करीब तीस साल का एक युवक मुंबई के प्रसिद्ध टाटा कैंसर अस्पताल के सामने फुटपाथ पर खड़ा था। युवक वहां अस्पताल की सीढिय़ों पर मौत की दहलीज पर खड़े मरीजों को बड़े ध्यान दे देख रहा था, जिनके चेहरों पर दर्द और विवषता का भाव स्पष्ट नजर आ रहा था। इन रोगियों के साथ उनके रिश्तेदार भी परेशान थे। 
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वहां मौजूद रोगियों में से अधिकांश दूर दराज के गांवों के थे, जिन्हे यह भी नहीं पता था कि क्या करें, किससे मिले? इन लोगों के पास दवा और भोजन के भी पैसे नहीं थे। टाटा कैंसर अस्पताल के सामने का यह दृश्य देख कर वह तीस साल का युवक भारी मन से घर लौट आया। उसने यह ठान लिया कि इनके लिए कुछ करूंगा। कुछ करने की चाह ने उसे रात-दिन सोने नहीं दिया। अंतत: उसे एक रास्ता सूझा.. 
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उस युवक ने अपने होटल को किराये पर देक्रर कुछ पैसा उठाया। उसने इन पैसों से ठीक टाटा कैंसर अस्पताल के सामने एक भवन लेकर धर्मार्थ कार्य (चेरिटी वर्क) शुरू कर दिया। 
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उसकी यह गतिविधि अब 27 साल पूरे कर चुकी है और नित रोज प्रगति कर रही है। उक्त चेरिटेबिल संस्था कैंसर रोगियों और उनके रिश्तेदारों को निशुल्क भोजन उपलब्ध कराती है। करीब पचास लोगों से शुरू किए गए इस कार्य में संख्या लगातार बढ़ती गई। मरीजों की संख्या बढऩे पर मदद के लिए हाथ भी बढऩे लगे। सर्दी, गर्मी, बरसात हर मौसम को झेलने के बावजूद यह काम नहीं रूका। 
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यह पुनीत काम करने वाले युवक का नाम था हरकचंद सावला।
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एक काम में सफलता मिलने के बाद हरकचंद सावला जरूरतमंदों को निशुल्क दवा की आपूर्ति शुरू कर दी। इसके लिए उन्होंने मेडिसिन बैंक बनाया है, जिसमें तीन डॉक्टर और तीन फार्मासिस्ट स्वैच्छिक सेवा देते हैं। 
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57 साल की उम्र में भी सावला के उत्साह और ऊर्जा 27 साल पहले जैसी ही है। मानवता के लिए उनके योगदान को नमन करने की जरूरत है। यह विडंबना ही है कि 10 से 12 लाख कैंसर रोगियों को मुफ्त भोजन कराने वाले को कोई जानता तक नहीं। यहां मीडिया की भी भूमिका पर सवाल है, जो सावला जैसे लोगों को नजर अंदाज करती है। 
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यह हमे समझना होगा कि शिरडी में साई मंदिर, तिरुपति बाला जी आदि स्थानों पर लाखों रुपये दान करने से भगवान नहीं मिलेगा। भगवान हमारे आसपास ही रहता है। लेकिन हम बापू, महाराज या बाबा के रूप में विभिन्न स्टाइल देव पुरुष के पीछे पागलों की तरह चल रहे हैं। 
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End
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मंगलवार, सितंबर 08, 2015

जाओ बाबू, दरोगा बन जाओ ... (लघु कथा)

किसी ने उसे बता दिया था, कि "कलेट्टर साब के हियाँ चलजा, सब काम हो जाई"। 
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इसीलिए साहब के दरवाज़े पे बैठी थी। सुबह आठ बजे से बैठे-बैठे दुपहर के दो बज गए थे। सुतली के सहारे टिके चश्मे के भीतर धँसी, तरसती आँखों से उसने जाने कितने ही लोगों को भीतर जाते और बाहर आते देखा था। कम से कम बीसियों बार उसने खुद चपरासी से चिरौरी की थी, कि उसे अन्दर जाने दे। पर सब व्यर्थ गया। उसे यकीन हो चला कि कहीं कोई सुनवाई नहीं। 
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फिर भी आख़िरी बार उसने चपरासी से पूछा - "ए भईया, तनी देख न। साहब खाली भए ?" 
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"नहीं माता जी। साहब अभी खाना खाने गए हैं। अभी समय लगेगा। बैठो। नहीं तो जाओ, कुछ खा-पी के आना।" चपरासी ने उसे टालते हुए कहा। 
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साहब तो बस उठे ही थे जाने के लिए, आवाज़ सुन के बाहर आ गए - "क्या हुआ ? क्या बात है ?" 
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"सर ये बुढ़िया परेशान कर रही थी। अभी-अभी आई है, और, मिलना है-मिलना है चिल्ला रही है।" 
चपरासी ने खुद को बचाते हुए कहा। 
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"कहाँ से आई हो माता जी? अन्दर आ जाओ।" कलेक्टर साहब ने चपरासी को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा, और खुद अन्दर चले। 

पीछे-पीछे बुढ़िया और उसके पीछे चपरासी कि कहीं कोई शिकायत ना कर दे बुढ़िया।" 

हम ओह पार से आ रहे हैं भईया।" बुढ़िया ने कहा।" 

यहाँ कब से बैठी हो?" साहब ने पूछा। 

"सर ये तो..." चपरासी ने कुछ सफाई देनी चाही।" 

तुम बाहर जाओ।" साहब की कड़कदार आवाज़ बिजली बन के गिरी, और चपरासी सरपट कमरे से बाहर निकल गया।" 

हाँ माता जी ...बताओ।" साहब ने बड़े ही आदर से पूछा। 
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बस फिर क्या था, अगले कुछ मिनटों में बुढ़िया के शब्दों ने उसकी भावनाओं पे जमी धूल की परतों को खुरच-खुरच के उतार दिया, और बरसों से सीने में दबा दर्द पिघल कर आँखों से बह चला। 
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साहब ने दो-एक फ़ोन किये और एक-आध लोगों को डाँट पिलाई। फ़िर बुढ़िया की तरफ़ मुड़ के बोले - 
"जाओ माता जी। तुम्हारा काम हो गया।" और उठने का उपक्रम किया। 
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बुढ़िया ने साड़ी के कोने की पोटली खोली और दस रुपये के कुछ फटे-पुराने नोट और सिक्के निकाल के कलेक्टर साब को देने लगी।" 

अरे ... ! ये मत किया करो माता जी। जाओ अब। कोई तुम्हे परेशान नहीं करेगा।" 
कहकर कलेक्टर साहब ने अपनी झेंप मिटाने की कोशिश की। 

बुढ़िया को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ, उसने कहा - 
"खूब तरक्की करो भईया, बड़े हो जाओ बाबू, दरोगा बन जाओ।" 

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The End
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सऊदी अरब का स्टूडेंट


आस्टेलिया में रहकर पढने वाले सऊदी अरब के स्टूडेंट ने अपने अब्बा जान को मेल किया :- 

"आस्टेलिया बहुत ही सुंदर देश है ... 
और उतने ही सुंदर यहां के लोग ... 
लेकिन मुझे उस समय शर्म आती है, जब मै 20 तोले की सोने की चेन गले में डालकर 
अपनी फरारी से कालेज जाता हूँ... जबकि सभी लोग ट्रेन से कालेज जाते हैं...." 

-- आपका बेटा नसीर 
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..
दूसरे दिन उसे 
अब्बा का मेल मिला :- 

"बेटे अब तुम्हें भी झिझकने या शर्म महसूस करने की जरुरत नही ... 
क्योंकि मैंने तुम्हारे खाते में 20 मिलियन डॉलर डाल दिये हैं.... जाओ तुम भी ट्रेन ले लो....." 

-- तुम्हारा बाप अल हबीबी 
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:-) :-) :-) 
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गाँव का क़ानून ... !! :-)

एक बार संता ने एक कबूतर का शिकार किया, वह कबूतर जाकर एक खेत में गिरा ! 
जब संता उस खेत में कबूतर को उठाने पहुंचा तभी एक किसान वहां आया और संता को पूछने लगा कि 
वह उसकी प्रोपर्टी में क्या कर रहा है ? 

संता ने कबूतर को दिखाते हुए कहा – 
“मैंने इस कबूतर को मारा और ये मर कर यहाँ गिर गया मैं इसे लेने आया हूँ!” 

किसान – “ये कबूतर मेरा है क्योंकि ये मेरे खेत में पड़ा है!” 

संता – “क्या तुम जानते हो तुम किससे बात कर रहे हो?” 

किसान – “नहीं मैं नहीं जानता और मुझे इससे भी कुछ नहीं लेना है कि तुम कौन हो!” 

संता – “मैं हाईकोर्ट का वकील हूँ, अगर तुमने मुझे इस कबूतर को ले जाने से रोका तो मैं तुम पर ऐसा मुकदमा चलाऊंगा कि तुम्हें तुम्हारी जमीन जायदाद से बेदखल कर दूंगा और रास्ते का भिखारी बना दूंगा!” 

किसान ने कहा – “हम किसी से नहीं डरते …..........समझे ?
हमारे गाँव में तो बस एक ही कानून चलता है… लात मारने वाला!” 

संता – “ये कौन सा क़ानून है … मैंने तो कभी इसके बारे में नहीं सुना !” 

किसान ने कहा -“मैं तुम्हें तीन लातें मारता हूँ अगर तुम वापिस उठकर तीन लातें मुझे मार पाओगे तो 
तुम इस कबूतर को ले जा सकते हो !” 

संता ने सोचा ये ठीक है ये मरियल सा आदमी है, इसकी लातों से मुझे क्या फर्क पड़ेगा ! 
ये सोचकर उसने कहा – “ठीक है मारो!” 

किसान ने बड़ी बेरहमी से संता को पहली लात टांगों के बीच में मारी, जिससे संता मुहं के बल झुक गया! 
किसान ने दूसरी लात संता के मुहं पर मारी, जिसके पड़ते ही वह जमीन पर गिर गया! तीसरी लात किसान ने संता की पसलियों पर मारी. 

बहुत देर बाद संता उठा और जब लात मारने के लायक हुआ तो किसान से बोला – “अब मेरी बारी है!” 

किसान – “चलो छोड़ो यार ... झगडे में क्या रखा है ...  ये कबूतर तुम ही रखो !” 

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:-) :-) :-)
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सोमवार, सितंबर 07, 2015

गोल गप्पे वाला और बेचारा मैं :-)


रविवार का दिन था, आज गोल गप्पे खाने की इच्छा हुयी। शाम को गोलगप्पे का ठेला जो कि हमारी कॉलोनी के बाहर रोड पर ही खड़ा रहता है, वहीँ चले गए और देखा तो वहाँ काफी भीड़ थी...लोग हाथ में प्लेट लेकर लाइन में लगे हुए थे। तकरीबन 15 मिनिट के बाद हमारा भी नम्बर आ गया.... लेकिन उस 15 मिनट के दौरान में यह सोचता रहा कि - 
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बेचारा क्या कमाता होगा ... ?? 
बेचारा बड़ी मेहनत करता है ... ?? 
बेचारा घर का गुजारा कैसे चलाता होगा ... ??
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जब हमारी बारी आई तो मैंने गोल गप्पे वाले से यूँही पूछ लिया - 
"भाई क्या कमा लेते हो दिन भर में" (मुझे उम्मीद थी की 300-400 रुपये बन जाता होगा गरीब आदमी का) -- 
गोल गप्पे वाला - "साहब जी भगवान की कृपा से माल पूरा लग जाता है" 
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मैंने पुछा - "मैं समझा नही भाई, मतलब जरा अच्छे से समझाओ" 
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गोल गप्पे वाला - "साहब हम सुबह में 7 बजे घर से 3000 गोलगप्पे लेकर के निकलते है और शाम को 7 बजने से पहले भगवान की कृपा से सब माल लग जाता है" 
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मैंने हिसाब लगाया कि यह 10 रुपये में 6 गोल गप्पे खिलाता है मतलब की 3000 गोल गप्पे बिकने पर उसको 5000 रुपये मिलते होंगे और अगर 50% उसका प्रॉफिट मान लें तो वह दिन के 2500 रुपये या उससे भी ज्यादा कमा लेता है...!!! यानी कि महीने के 75,000 रुपये !!! 
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यह सोचकर तो मेरा दिमाग चकराने लगा.... 
अब मुझे गोलगप्पे वाला बेचारा नजर नही आ रहा था...बेचारा तो मैं हो गया था...!! 

एक 7-8 क्लास पढ़ा इन्सान इज्जत के साथ महीने के 75,000 रुपये कमा रहा है... 
उसने अपना 45 लाख का घर ले लिया है...और 4 दुकाने खरीद कर किराये पर दे रखी है 
जिनका महीने का किराया 30,000 रुपये आता है...। 
और हमने वर्षों तक पढ़ाई की, उसके बाद 20-25 हजार की नौकरी कर रहे है.... 
किराये के मकान में रह रहे है... यूँ ही टाई बांधकर झुठी शान में घूम रहे हैं...  
दिल तो किया की उसी गोलगप्पे में कूदकर डूब जाऊं... 
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किसी ने सही कहा है ... 
"Dont Under Estimate Power of The Common Man
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:-) :-) :-)
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