किसी ने उसे बता दिया था, कि "कलेट्टर साब के हियाँ चलजा, सब काम हो जाई"।
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इसीलिए साहब के दरवाज़े पे बैठी थी। सुबह आठ बजे से बैठे-बैठे दुपहर के दो बज गए थे। सुतली के सहारे टिके चश्मे के भीतर धँसी, तरसती आँखों से उसने जाने कितने ही लोगों को भीतर जाते और बाहर आते देखा था। कम से कम बीसियों बार उसने खुद चपरासी से चिरौरी की थी, कि उसे अन्दर जाने दे। पर सब व्यर्थ गया। उसे यकीन हो चला कि कहीं कोई सुनवाई नहीं।
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फिर भी आख़िरी बार उसने चपरासी से पूछा - "ए भईया, तनी देख न। साहब खाली भए ?"
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"नहीं माता जी। साहब अभी खाना खाने गए हैं। अभी समय लगेगा। बैठो। नहीं तो जाओ, कुछ खा-पी के आना।" चपरासी ने उसे टालते हुए कहा।
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साहब तो बस उठे ही थे जाने के लिए, आवाज़ सुन के बाहर आ गए - "क्या हुआ ? क्या बात है ?"
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"सर ये बुढ़िया परेशान कर रही थी। अभी-अभी आई है, और, मिलना है-मिलना है चिल्ला रही है।"
चपरासी ने खुद को बचाते हुए कहा।
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"कहाँ से आई हो माता जी? अन्दर आ जाओ।" कलेक्टर साहब ने चपरासी को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा, और खुद अन्दर चले।
-
पीछे-पीछे बुढ़िया और उसके पीछे चपरासी कि कहीं कोई शिकायत ना कर दे बुढ़िया।"
-
हम ओह पार से आ रहे हैं भईया।" बुढ़िया ने कहा।"
-
यहाँ कब से बैठी हो?" साहब ने पूछा।
-
"सर ये तो..." चपरासी ने कुछ सफाई देनी चाही।"
-
तुम बाहर जाओ।" साहब की कड़कदार आवाज़ बिजली बन के गिरी, और चपरासी सरपट कमरे से बाहर निकल गया।"
-
हाँ माता जी ...बताओ।" साहब ने बड़े ही आदर से पूछा।
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बस फिर क्या था, अगले कुछ मिनटों में बुढ़िया के शब्दों ने उसकी भावनाओं पे जमी धूल की परतों को खुरच-खुरच के उतार दिया, और बरसों से सीने में दबा दर्द पिघल कर आँखों से बह चला।
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साहब ने दो-एक फ़ोन किये और एक-आध लोगों को डाँट पिलाई। फ़िर बुढ़िया की तरफ़ मुड़ के बोले -
"जाओ माता जी। तुम्हारा काम हो गया।" और उठने का उपक्रम किया।
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बुढ़िया ने साड़ी के कोने की पोटली खोली और दस रुपये के कुछ फटे-पुराने नोट और सिक्के निकाल के कलेक्टर साब को देने लगी।"
-
अरे ... ! ये मत किया करो माता जी। जाओ अब। कोई तुम्हे परेशान नहीं करेगा।"
कहकर कलेक्टर साहब ने अपनी झेंप मिटाने की कोशिश की।
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बुढ़िया को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ, उसने कहा -
"खूब तरक्की करो भईया, बड़े हो जाओ बाबू, दरोगा बन जाओ।"
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इसीलिए साहब के दरवाज़े पे बैठी थी। सुबह आठ बजे से बैठे-बैठे दुपहर के दो बज गए थे। सुतली के सहारे टिके चश्मे के भीतर धँसी, तरसती आँखों से उसने जाने कितने ही लोगों को भीतर जाते और बाहर आते देखा था। कम से कम बीसियों बार उसने खुद चपरासी से चिरौरी की थी, कि उसे अन्दर जाने दे। पर सब व्यर्थ गया। उसे यकीन हो चला कि कहीं कोई सुनवाई नहीं।
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फिर भी आख़िरी बार उसने चपरासी से पूछा - "ए भईया, तनी देख न। साहब खाली भए ?"
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"नहीं माता जी। साहब अभी खाना खाने गए हैं। अभी समय लगेगा। बैठो। नहीं तो जाओ, कुछ खा-पी के आना।" चपरासी ने उसे टालते हुए कहा।
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साहब तो बस उठे ही थे जाने के लिए, आवाज़ सुन के बाहर आ गए - "क्या हुआ ? क्या बात है ?"
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"सर ये बुढ़िया परेशान कर रही थी। अभी-अभी आई है, और, मिलना है-मिलना है चिल्ला रही है।"
चपरासी ने खुद को बचाते हुए कहा।
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"कहाँ से आई हो माता जी? अन्दर आ जाओ।" कलेक्टर साहब ने चपरासी को नज़रअंदाज़ करते हुए कहा, और खुद अन्दर चले।
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पीछे-पीछे बुढ़िया और उसके पीछे चपरासी कि कहीं कोई शिकायत ना कर दे बुढ़िया।"
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हम ओह पार से आ रहे हैं भईया।" बुढ़िया ने कहा।"
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यहाँ कब से बैठी हो?" साहब ने पूछा।
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"सर ये तो..." चपरासी ने कुछ सफाई देनी चाही।"
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तुम बाहर जाओ।" साहब की कड़कदार आवाज़ बिजली बन के गिरी, और चपरासी सरपट कमरे से बाहर निकल गया।"
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हाँ माता जी ...बताओ।" साहब ने बड़े ही आदर से पूछा।
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बस फिर क्या था, अगले कुछ मिनटों में बुढ़िया के शब्दों ने उसकी भावनाओं पे जमी धूल की परतों को खुरच-खुरच के उतार दिया, और बरसों से सीने में दबा दर्द पिघल कर आँखों से बह चला।
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साहब ने दो-एक फ़ोन किये और एक-आध लोगों को डाँट पिलाई। फ़िर बुढ़िया की तरफ़ मुड़ के बोले -
"जाओ माता जी। तुम्हारा काम हो गया।" और उठने का उपक्रम किया।
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बुढ़िया ने साड़ी के कोने की पोटली खोली और दस रुपये के कुछ फटे-पुराने नोट और सिक्के निकाल के कलेक्टर साब को देने लगी।"
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अरे ... ! ये मत किया करो माता जी। जाओ अब। कोई तुम्हे परेशान नहीं करेगा।"
कहकर कलेक्टर साहब ने अपनी झेंप मिटाने की कोशिश की।
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बुढ़िया को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ, उसने कहा -
"खूब तरक्की करो भईया, बड़े हो जाओ बाबू, दरोगा बन जाओ।"
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The End
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