मंगलवार, जुलाई 01, 2014

राजवैद्य की जादुई पुडिया

एक राजवैद्य थे, सिर्फ राज-परिवार से सम्बंधित लोगों का ही उपचार करते थे ! समय बीता,,,, राजा-जमीदार कहने भर को रह गए ! ठाठ-बाट में पल रहे राजवैद्य जी को महसूस हुआ कि अब एक खूंटे से बंधे रहकर कुछ नहीं हो सकता !

राजवैद्य जी ने आगामी योजना सोच ली ! 


उनके तमाम चेले-चपाटों ने नगर भर में बैनर-पोस्टर टांग दिए ! गाड़ियों से घूम-घूमकर एनाउंस करवा दिया गया कि नगरवासियों के हर तरह का रोग दूर करने के लिए राजवैद्य जी ने फैसला किया है ! बारह वर्षों तक राजपरिवार में जादू दिखाने वाला जादूगर अब नगरवासियों की सेवा करेगा !


निश्चित तारीख को राजवैद्य पधारे ! पूरा नगर उमड़ पड़ा ,,, ऐसा लगा मानो जनसैलाब बह रहा हो ! राजवैद्य और उनके चेले सभी रोगियों को पांच सौ रुपये की एक खुराक पुडिया दे रहे थे, लोग अपनी जरुरत और हैसियत के मुताबिक़ पुडिया ले रहे थे ,,कोई दो, कोई चार ,,,, कोई दस ! दवा महंगी जरुर थी लेकिन सबको रोग मुक्त होना था तो दिल पे पत्थर रख के दवा ले रहे थे ! सभी रोगियों को एक बात कायदे से समझा दी गयी थी कि दवा किस विधि से खानी है ये बात राजवैद्य जी शिविर समापन पर बताएँगे !
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खैर तीन दिन तक सुबह से रात तक जमकर दवा वितरण का कार्यक्रम चला !


जब लगभग सारे रोगी निपट गए तो राजवैद्य बाहर आये और जनता को संबोधित किया : 


"बहुत प्रसन्नता की बात है कि आप सब ने मिलकर इस रोगमुक्त शिविर कार्यक्रम को सफल बनाया ! मेरे लिए ये मिटटी मेरी माँ है, इसकी सेवा करना ही मेरा कर्तव्य है ! मेरा अब दुसरे नगर के प्रस्थान का समय हो गया है ,,, जाते-जाते आपको दी गयी औषधि के विषय में बता दूँ ,,, ये दवा काफी कडवी है लेकिन रोगमुक्त होने के लिए इतना तो आपको सहन करना ही होगा ! एक और विशेष बात इस दवा को प्रातः चार बजे खाली पेट "स्वर्ण भस्म" के साथ खाना है ! अब हमें आज्ञा दीजिये ,,, नमस्कार !;
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राजवैद्य जी की घोडा गाड़ी तैयार खडी थी ,,, चेलों को लेकर उड़ गए !
जनता अभी भी मुंह बाए ताक रही थी !
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डिस्क्लेमर : 
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इस कथा का सम्बन्ध किसी भी घटना अथवा व्यक्ति से नहीं है , अगर किसी को ऐसा आभास होता है तो वो बाबा रामदेव के शिविर में जाकर अपना इलाज कराये !

रविवार, अप्रैल 20, 2014

एक रहेन मिश्रीलाल : चुनावी चकल्लस

पहले की बात है ! लखीमपुर में एक ठो रहे मिश्रीलाल ! विधायकी के चुनाव के लिए दुई-चार चेले-चपाटों ने उकसा दिया तो मिश्रीलाल भी खड़े हो गए ! जीतना भला किसे था लेकिन ठसक बनी रहे, ये भी जरुरी था !

खैर, बैलेट बॉक्स खुलने का दिन भी आया,
पता चला मिश्रीलाल को टोटल 74 वोट मिले हैं !

अगले रोज जब रोज की तरह दो-चार चेले-चपाटों के साथ टहलने निकले तो जिधर जाएँ, वहीँ से आवाज़ आये - "दद्दा आपै का भोट दिए रहेन !" मिश्रीलाल यही बात सुनत-सुनत अघाय गए, माइंड फ्रेश करने के लिए सिगरेट पीने दूकान पे गए तो पनवाड़ी भी चहक उठा - "दद्दा हमहू आपै का भोट दिया रहा"

इतना सुनना था कि तपे हुए मिश्रीलाल बमक पड़े - "भूतनी के कउनो सिर्री-विर्री समझे हो का ? 80-82 भोट तो हमरे घरे-बिरादरी केरे हैं ,, ओहू पूरै न मिले ,, वोहू मा पनौती ,,, यहाँ सरऊ जिहका देखौ कहि रहा है - हमउ दियै,, हमउ दिये,, अतने भोट कहाँ घुसि गए ?"

मिश्रीलाल का बमकना आगे भी जारी रहा -
",,,, खडन्जा बिछवाएन खातिर रात-दिन किहेन हम, नहरिया से पानी काटै बदि के कुलाबा लगवायेन हम, कउनो काम हो तो दद्दा दद्दा ,,, अऊर जब चुनाव आवा तो आपन-आपन जाति-बिरादरी माँ भोट खोंस दिहिन ,,, आवौ अब कौनो काम खातिर बताएब हमहूँ ,,,,,"

दद्दा का मूड गरम देख चेले-चपाटे दायें-बाएं खिसक लिए !


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End
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सोमवार, फ़रवरी 10, 2014

एक दिलचस्प और सच्चा किस्सा


मूक सिनेमा के दौर का यह एकदम सच्चा वाकया है ! मशहूर निर्देशक होमी मास्टर और उनकी फ़िल्म के हीरो के बीच किसी बात को लेकर विवाद हो गया ! झगड़ा इतना ज्यादा बढ़ गया कि बीच-बचाव की नौबत आ गयी ! क्रोध में हीरो ने होमी मास्टर के साथ काम न करने का एलान कर दिया और शूटिंग छोड़कर चल दिया ! 

सेट पर सन्नाटा छा गया कि अब क्या होगा ? होमी मास्टर भी हार मानने को तैयार नहीं थे ! थोड़ी देर सोचते रहे, उसके बाद फरमाया कि एक कुत्ते को शूटिंग के लिए लाया जाए ! उन्होंने बैठे-बैठे फ़िल्म की स्टोरी स्क्रिप्ट में फेर-बदल कर डाला - अब एक नया दृश्य जोड़ा गया, जिसमें एक जादूगर अपने जादू की ताकत से हीरो को कुत्ता बना देता है ! 

कुत्ता लाया गया ! शूटिंग शुरू हुयी ! अब बेचारी हिरोइन के लिए हीरो की जगह कुत्ता था, जिसे वह प्रेमी की तरह गले लगाती और प्यार करती ! इधर शूटिंग चलती रही और चटखारेदार ख़बरें बनती रहीं और उधर बेचारा हीरो अपनी जगह कुत्ते को लिए जाने की खबर से इतना अधिक विचलित हो गया कि उसने सुलह-सफाई कर ली ! 

हीरो शूटिंग पर लौट आया ! होमी मास्टर ने एक नया दृश्य तैयार किया, जिसमें जादूगर कुत्ते को वापस उसके असली रूप में ले आता है और हिरोईन से उसका मिलन हो जाता है ! फ़िल्म की रिलीज पर इस कुत्ते वाले 'सीक्वेंस' को पब्लिक से जबर्दस्त तालियां और दाद मिली ! 

अब बताईये क्या कहा जाए ? 
हिंदुस्तान की पब्लिक का कोई जवाब नहीं  :-)

मुझे लगता रहता है कि होमी मास्टर आज भी ज़िंदा है ! वो फ़िल्म से टीवी में भले ही कई रूपों में आ गया हो, उसका नाम भले ही एकता कपूर या कुछ और हो गया हो ! मगर मुझे लगता है कि होमी मास्टर आज भी ज़िंदा है ! है कि नहीं जी ?
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The End 
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गुरुवार, दिसंबर 19, 2013

घर सा घर ... अब कहाँ है घर

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'घर' एक वास्तु मात्र न होकर भावसूचक संज्ञा भी है ! घर से अधिक सजीव एवं घर से अधिक निर्जीव भला क्या हो सकता है ! अनगिनत भावनाओं और प्रतीकों का मिला-जुला रूप है घर !

"कमरा नंबर एक / जहाँ दो-दो सड़कों के दुःशासनी हाथ / उसकी दीवारें उतार लेने को / लपके ही रहते हैं / / कमरा नंबर दो / जहाँ खिड़की से आसमान दिखता है / धुप भी आती है / कमरा नंबर तीन जो आँगन में खुलता है / जिसका दरवाजा पूरे घर को / रौशनी की बाढ़ में तैरा सकता है !! मगर अफसोस कि / रौशनी के साथ-साथ / पडोसी घरों का धुआं भी / भीतर भर आता है "

उपरोक्त पंक्तियों में घर का बिम्ब उभरता है ! यह बिम्ब भारतीय घर का ही है ! यह घर प्राचीन भी है, मध्कालीन भी और समकालीन भी ! यह बिम्ब बहुत सुखद नहीं है ! साहित्य में 'घर' वह भी होता है जो घर की स्मृति से, घरेलु रिश्तों द्वारा निर्मित और परिभाषित होता है :
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"घर/ हैं कहाँ जिनकी हम बात करते हैं/ घर की बातें/ सबकी अपनी हैं/ घर की बातें/ कोई किसी से नहीं करता/ जिनकी बातें होती हैं/ वे घर नहीं होते"
[अज्ञेय]

जैसा कि पहले ही कहा कि घर से अधिक सजीव और घर से अधिक निर्जीव क्या हो सकता है ? ईंट-गारे के बने चाहर- दीवारों को घर नहीं माना जा सकता ! घर के साथ जुड़े रहते हैं अनेकों रिश्ते - माँ, पिताजी, भाई, बहन, भाभी, चाचा, चाची ...... ! घर के साथ जुड़े रहते हैं अनेकों शब्द ..... प्रतीक्षा, प्रेम, सुरक्षा, नींद, भूख, भोजन, सुख-दुःख .............. :

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"कहाँ भाग गया घर / साथ-साथ चलते हुए / इस शहर के फुटपाथों पर / हमने सपना देखा था / एक छोटे से घर का, / और जब सपना / घर बन गया, // हम अलग-अलग कमरों में बंट गए" !

जैसे घरों में हम सचमुच (अथवा स्मृति में) रहते हैं, वैसा ही घर साहित्य में भी रचते हैं ! साहित्य में हमारी स्म्रतियां, अनुभूतियाँ अपना घर ही तो खोजती हैं - बनाती हैं ! यदि हम अब एक साथ रहने वाले केवल एक उपभोक्ता समुदाय बन गए हैं - सीमेंट-कंक्रीट के जंगलों में अपने चेहरे की तलाश में भटकते आकार मात्र - तो साहित्य इसे प्रतिबिंबित करेगा ही :

"ये दीवारें / मेरा घर हैं / वह घर / जिसके सपने देखती मैं / विक्षिप्तता की सुरंग में भटक गयी थी / इसकी छत के नीचे खड़ी / सोचती हूँ / यह तो मेरा सपना नहीं है / न ही भाव बोध / न ही कलात्मक रुचियों की अभिव्यक्ति" - (कुसुम अंसल)

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यदि सचमुच हमारा अपना विश्वास खंडित हो चुका है, पारंपरिक जीवन मूल्य भूल चुके हैं, स्वयं अपने 'आत्म' से निर्वासित हो चुके हैं तो यह आत्मनिर्वासन हमारे साहित्य को प्रभावित किये बिना कैसे रहेगा ? मुझे 'इंदिरा राठौर जी" की कविता याद आ रही है :

वही घर, वही लोग / लेकिन घर अब बासी लगता है / वैचारिक प्रगतिशीलता के आवरण में / सब दकियानूसी लगता है / बच्चे जनता है, भटकता है रोजगार के लिए / रोते शिकायत करते / आखिर ख़त्म हो जाता है घर /// हर कोने-अंतरे टंगे रहते हैं प्रश्न / मकडी के जालों से / घर चाहता है 'बड़े लोगों में' आयें नजर हम / समाज को दिखाएँ रूआब अपना / पैसा, ताकत, प्रतिष्ठा .... / घर अगर संकुचित है यहीं तक / तो यह मेरा घर नहीं है ..... यह मेरा घर नहीं है "

जिस आधुनिक सभ्यता के घिराव में हम आ गए हैं, उसमें भारतीय आदर्शवादी घर की गुंजाईश ही कहाँ बची है ! इस आधुनिक सभ्यता का जो कठोरतम वज्रपात हुआ है, वह तो इस घर की गृहिणी पर ही हुआ है ! निर्मल वर्मा जी की एक कहानी में यह मानसिक द्वंद स्पष्ट दिखाई देता है :

'घर कहीं नहीं था ! दुःख था ... बाँझ दुःख, जिसका कोई फल नहीं था, जो एक-दुसरे से टकराकर ख़त्म हो जाता है और हम उसे नहीं देख पाते जब तक आधा रिश्ता पानी में नहीं डूब जाता !'

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आधुनिक साहित्य में 'भारतीय घर' तेजी से हिचकोले खा रहा है ! कारण साफ है : समाज को स्त्री ने जन्म दिया ! दलबद्ध भाव से रहने के प्रति निष्ठां होने के कारण वह उसी समाज की अनुचरी हो गयी ! पुरुष समाज से भागना चाहता था ! स्त्री ने अपना हक़ त्यागकर उसे समाज में रखा - उसके हाथ में समाज की नकेल दे दी ! .... आज वह देखती है कि उसी के बुने हुए जाल ने उसे बुरी तरह जकड डाला है, जिससे निकलने के लिए उसकी छटपटाहट निरंतर जारी है !

गुजरे कई वर्षों के दौरान हमारे यहाँ जीवन का काफी तिरस्कार सा रहा, जिसका परिणाम हमें भौतिक दासता के रूप में ही नहीं बल्कि स्वयं अपने विचार, दर्शन और संवेदन की भी पंगुता के रूप में भुगतना पड़ रहा है ! घर की याद भी तभी है जब घर नहीं होता अथवा घर, घर जैसा नहीं होता ! श्रीकांत जी की कविता की पंक्ति याद आ रही हैं :
मैं महुए के वन में एक कंडे सा /सुलगना, धुन्धुवाना चाहता हूँ /मैं घर जाना चाहता हूँ..

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की 'यहीं कहीं एक कच्ची सड़क थी' शीर्षक कविता भी याद आ रही है, जिसमें एक खोये हुए घर का विषाद है और उसे तलाश करने की छटपटाहट भी ! रवींद्र नाथ ठाकुर जी की लिखी एक कहानी है - 'होमकमिंग' ! कहानी का मुख्य पात्र 'जतिन चक्रवर्ती' दिन भर घर से बाहर भटकता और शैतानियाँ करता रहता है ! उसे सुधारने के लिए उसके माँ-बाप उसे कलकत्ता भेज देते हैं, जहाँ उसका बिलकुल मन नहीं लगता ! वह अपने घर के लिए तड़पता हुआ एक-एक दिन गिनता रहता है कि कब छुटियाँ मिलें और कब वह घर पहुंचे ! आखिर एक दिन उसे छुट्टी मिल जाती है किन्तु म्रत्यु शय्या पर ! बेहोशी की सी बीमारावस्था में घर-घर बड- बडाता हुआ वह चल बसता है !
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ऐसा लगता है कि जतिन चक्रवर्ती की इस विडम्बनापूर्ण नियति को हमारे अधिकाँश लेखकों ने स्वीकार कर लिया है ! किन्तु वे घर का दुखडा भी नहीं रोते, न ही उसकी नुमाईश करते हैं ! वे स्थिति का सामना करते हैं और पुनर्वास का भी ! अज्ञेय जी का काव्य संग्रह 'ऐसा कोई घर आपने देखा है' में ऐसा ही कुछ है :

"घर मेरा कोई है नहीं / घर मुझे चाहिए / घर के भीतर प्रकाश हो / इसकी भी मुझे चिंता नहीं / प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो / इसी की मुझे तलाश है / ऐसा कोई घर आपने देखा है ? / न देखा हो / तो भी हम / बेघरों की परस्पर हमदर्दी के / घेरे में तो रह ही सकते हैं "

'बेघरों की परस्पर हमदर्दी का घेरा' अपने आप में प्रकाश का घेरा चाहे न भी हो, किन्तु वह वह उसकी अनिवार्य भूमिका निश्चय ही है ! कम से कम वह उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का पहला उपक्रम तो है ही ! उस अँधेरे के घेरे को तोड़ने का - जो प्राकृतिक नहीं, मानव निर्मित सांस्कृतिक अँधेरा :

"मैंने अपने घर का नंबर मिटाया है / और गली के सिरे पर लगा गली का नाम हटाया है / और हर सड़क की दिशा का नाम पोंछ दिया है / पर अगर तुम्हे मुझसे जरूर मिलना है / तो हर देश के शहर की हर गली का हर दरवाजा खटखटाओ ..... / यह एक शाप है, एक वरदान है / जहाँ भी स्वतंत्र रूह की झलक मिले / समझ जाना वह मेरा घर है !"

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मंगलवार, दिसंबर 10, 2013

खुरपेंची लाल महान

क कालोनी टाईप मोहल्ला था ! वहीँ के लोगों ने स्थानीय रख-रखाव व अन्य कार्यक्रमों के लिए एक मोहल्ला समिति बनायी और बुजुर्ग रईस अहमद को सर्व सम्मति से अध्यक्ष बना दिया था ! जैसा कि अन्य अच्छे मोहल्लों में होता है वैसा ही वहाँ भी माहौल था - जमादार सड़कें साफ़ करता, कूड़े वाला कूड़ा ले जाता, माली पार्क का रख-रखाव करता, रात में एक चौकीदार डंडा लेके सीटी बजाता घूमता, साल में एक-दो बार खेल-कूद के आयोजन संपन्न होते !

सी मोहल्ले में खुरपेंची लाल भी थे, गजब के नुकतेबाज...हर बात में कमियां गिनाते, सबकी हरामखोरी और मक्कारी का रोना रोते, मोहल्ला समिति के फंड में गड़बड़ी की बात करते ! लोग खुरपेंची लाल की क्रांतिकारी बातों से बहुत प्रभावित होते ! तमाम 'बिजी विदआउट वर्क' वाले छुटभैय्ये खुरपेंची लाल के प्रभाव में आते चले गए !

क दिन अचानक ही मोहल्ला समिति की मीटिंग बुलायी गयी और बुजुर्ग रईस अहमद की जगह खुरपेंची लाल को अध्यक्ष चुन लिया गया ! रईस अहमद ने भी मन ही मन राहत की सांस ली कि इस 'थैंकलेस जॉब' से छुट्टी मिली !

मोहल्ले वालों ने खुरपेंची लाल के अध्यक्ष बनने पर खूब ढोल-नगाड़े बजे और जिंदाबाद के नारों के साथ जुलूस निकाला ! हफ्ता-दस दिन तो जश्न और बधाई में गुजर गए ! उसके बाद क्रांतिकारी परिवर्तन का दौर शुरू हुआ !

खुरपेंची लाल ने पार्क के माली को हरामखोरी से मुक्त करते हुए कहा कि मेरे कई दोस्त एग्रीकल्चर, और फारेस्ट डिपार्टमेंट में हैं, उनसे कहूंगा तो दो-तीन माली आकर पार्क की काया पलट कर देंगे, आप लोग देखना ये पार्क फूलों से भर जाएगा !

फिर निकम्मे चौकीदार को जिम्मेदारी से मुक्त करते हुए कहा - "सिक्योरिटी सर्विस से बात करके मोहल्ले में वर्दीधारी सिक्योरिटी गार्ड नियुक्त करवाऊंगा, चोर-बदमाश तो सात फुटे सिक्योरिटी गार्ड को देखते ही भाग जायेंगे !"

सके उपरान्त जमादार और कूड़े वाले को बुलाकर उनकी काहिली गिनाई गयी, दोनों को जब उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराया गया तो दोनों एक साथ बोले - "बाबू जी आप किसी और को देख लो !" खुरपेंची लाल ने तमक के कहा - "भागो ~  यहाँ तुम जैसे काहिलों की कोई जरुरत नहीं, कल ही नगर निगम जाऊँगा और सब इंतजाम हो जाएगा !"
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खैर !!!
इस तरह के तमाम क्रांतिकारी कदम खुरपेंची लाल द्वारा उठाये गए !
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दिन पर दिन बीतते गए !
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मोहल्ले का पार्क उजाड़ हो गया !
गलियों में गंदगी और कूड़ा जमा रहता है !
जब-तब छोटी-मोटी चोरियों की खबर भी सुनायी देती हैं !
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खुरपेंची लाल आज भी पनवाड़ी और चाय की दूकान पे सबकी हरामखोरी और निकम्मेपन को गालियां देते दिख जाते हैं
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The End
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