सोमवार, जून 13, 2016

सत्यनारायण भगवान और मैं :-)


एक बार सत्यनारायण कथा की आरती का थाल मेरे सामने आने पर मैंने छाँट कर जेब में से कटा-फटा पाँच रुपये का नोट निकाला और कोई देखे नहीं, इस तरह आरती-थाल में डाला दिया। 
वहाँ अत्यधिक ठसाठस भीड़ थी। 
मेरे कंधे पर ठीक पीछे वाले सज्जन ने थपकी मार कर मेरी ओर 500 रुपये का नोट बढ़ाया। मैंने उनसे नोट ले कर आरती में डाल दिया। 
मुझे अपने मात्र 5 रुपये डालने पर थोड़ी लज्जा भी आई। 
बाहर निकलते समय मैंने उन सज्जन को श्रद्धा पूर्वक नमस्कार किया तब वो बोले - 

"बेटा .. जब तुम अपनी जेब से 5 रू का नोट निकाल रहे थे तो तुम्हारी जेब से 500 रु का नोट गिर गया था, जो कि उन्होंने मुझे वापस दिया था।" 
बोलो सत्यनारायण भगवान की जय !


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सभ्य समाज में कहाँ है कोई दलित ?


एक आम आदमी सुबह जागने के बाद दाँत ब्रश करता है, नहाता है, कपड़े पहनकर तैयार होता है, अखबार पढता है, नाश्ता करता है, घर से काम के लिए निकल जाता है.....बाहर निकलकर रिक्शा करता है, फिर लोकल बस या ट्रेन पकड़कर ऑफिस पहुँचता है, वहाँ पूरा दिन काम करता है, साथियों के साथ चाय पीता है, शाम को वापिस घर के लिए निकलता है.घर के रास्ते में एक सिगरेट फूँकता है, बच्चों के लिए टॉफी, बीवी के लिए गजरा लेता है, मोबाइल में रिचार्ज करवाता है, और अनेक छोटे मोटे काम निपटाते हुए घर पहुँचता है.... 
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अब आप बताइये कि उसे दिन भर में कहीं कोई दलित मिला ??  क्या उसने दिन भर में किसी दलित पर कोई अत्याचार किया ?? 
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उसको जो दिन भर में मिले, वो थे अख़बार वाले भैया, दूध वाले भैया, रिक्शा वाले भैया, बस कंडक्टर, ऑफिस के मित्र, आंगतुक, पान वाले भैया, चाय वाले भैया, टॉफी की दुकान वाले भैया, मिठाई की दूकान वाले भैया ..... जब ये सब लोग भैया और मित्र हैं तो इनमें दलित कहाँ है ? 
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क्या दिन भर में उसने किसी से पूछा कि भाई, तू दलित है या सवर्ण ? अगर तू दलित है तो मैं तेरी बस में सफ़र नहीं करूँगा, तुझसे सिगरेट नहीं खरीदूंगा, तेरे हाथ की चाय नहीं पियूँगा, तेरी दुकान से टॉफी नहीं खरीदूंगा ...... क्या उसने साबुन, दूध, आटा, नमक, कपड़े, जूते, अखबार, टॉफी, गजरा खरीदते समय किसी से ये सवाल किया था कि ये सब बनाने और उगाने वाले दलित हैं या सवर्ण ? 
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आम तौर पर हम सबके साथ ऐसा ही है, शायद ही कोई आजकल के युग में किसी की जाति पूछकर तय करता है कि फलां आदमी से कैसा व्यवहार करना है. 
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हम सबकी फ्रेंडलिस्ट में न जाने कितने दलित होंगे....क्या आज तक किसी ने कभी भी उनकी पोस्ट लाइक करने से पहले, या उसपर कमेन्ट करने से पहले उनकी जाति पूछी ? क्या किसी से कभी कहा कि तुम दलित हो इसलिए मेरी पोस्ट पर कमेन्ट मत करो ? 
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जब रोजमर्रा की जिंदगी में हमसे मिलने वाले दलित नहीं होते, तो उनमें से कोई मरते ही दलित कैसे हो जाता है ?? 
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जाति धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों को नकार दीजिये.......ये हमें असंगठित कर के हम पर राज करना चाहते हैं......सभी जाति, धर्म के , हम भारतीय मिलकर इन्हें खदेड़ दें. 
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संगठित हो जाइये.....हम सब भारतीय हैं.

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भारत का पक्का बदमाश : "महात्मा गांधी"


1939 अक्टूबर माह की एक दोपहर 12 बजे एक छोटे से स्टेशन पर रेल गाड़ियों की क्रासिंग हो रही थी। एक बंगाली युवक गांधी से भेंट करने सेवाग्राम जा रहा था। तभी उसे गाड़ी में पता चला कि गांधी तो क्रासिंग के लिए बाजु खड़ी ट्रेन से दिल्ली जा रहे हैं। 
...... 
वह फटाफट उतरा और पास खड़ी में गांधीजी के डिब्बे से बिलकुल सटे हुए डिब्बे में चढ़ गया । चढ़ते ही उसने अपने झोले से एक पुस्तक निकाली उसका शीर्षक था - "भारत का पक्का बदमाश : महात्मा गांधी " 
.... 
पुस्तक का शीर्षक देखते ही सहयात्री एकदम उछल पड़ा और उस बंगाली युवक से पूछ बैठा - अरे भाई ये कैसा टाइटल है बुक का, और तुमने ट्रेन क्यों बदली ? 
... 
युवक ने बताया मेरे मालिक और गुरु गोविन्ददास कौन्सुल ने ये किताब लिखी है और इस की सम्मति लिखवाने के लिए मैं गांधीजी के पास सेवाग्राम जा रहा था। पर इस जगह मालूम हुआ कि गांधीजी तो बगल में खड़ी रेल से अपनी मण्डली के साथ दिल्ली जा रहे है सो मैं यही उतर गया और इस ट्रेन में सवार हो गया और अब मैं पास वाले डिब्बे में जाकर गांधीजी से इस पुस्तक पर सम्मति के दो शब्द लिखवाऊंगा। 
भौचक हुआ सहयात्री बोल पड़ा - अरे भाई पुस्तक का नाम तो थोडा ठीक-ठाक रखा होता और मुझे तो नही लगता की गांधीजी इस पर सम्मति भी लिख देंगे। वह बंगाली युवक बोला मैं जा रहा हूँ गांधीजी के डिब्बे में क्या तुम साथ आओगे। सहयात्री की तो हिम्मत नही हुई । 
सो वह बंगाली युवक अकेला ही गांधीजी के डिब्बे में घुस गया। और थोड़ी ही देर में गांधीजी से सम्मति लिखवाकर वापस अपनी जगह आ गया। तब उसने अपने सहयात्री के पूछने पर बताया। 
गांधीजी के डिब्बे में मेरे हाथ में "भारत का पक्का बदमाश : महात्मा गांधी" ये पुस्तक देखते ही गांधीजी का साथी गुस्से से लाल-पीला हो उठा और मेरे हाथ से पुस्तक छीनकर एक कोने में फेंकने ही वाला था की गांधीजी का ध्यान इस तरफ गया और वे बोले - "लाओ तो सही इधर देखूं क्या हैं" 
"बापू आप क्यों अपना वक्त बर्बाद करते हैं फिजूल की गाली-गलौज होगी इसमें" .. बापू के साथ चल रहे..लोग बोले। 
गांधी बोले - भले ही गाली हो इसमें। गालियों से हमारा क्या बिगड़ता है ? और पुस्तक गांधीजी ने मेरे हाथ से लेकर पूछा - "क्या चाहते हो तुम "? 
... 
मैंने तुरन्त कहा की इस पुस्तक पर आपकी सम्मति चाहिए। तब गांधीजी ने पुस्तक के पन्ने उलट पुलट कर थोड़ी देर देखा और हंसकर बोले - "अरे तुम्हारे गुरु तुम्हारे मालिक ने तो सब कुछ लिख दिया है, अब मैं क्या और लिखू " ? 
... 
मैंने कहा बापू आप जो चाहे पर सम्मति के रूप में कुछ तो लिख दीजिये। तब बापू ने कहा अच्छी बात है लिख देता हूँ। 
गांधी जी ने उस पुस्तक पर ये लिखा था - 
"प्रिय मित्र; 
मैंने अभी पांच मिनिट तक आपकी पुस्तक सरसरी तौर पर देखी । इसके मुखपृष्ठ या मज़मून के विरोध में मुझे कुछ भी नही कहना हैं। आपको पूरा अधिकार हैं कि जो पद्धति आपको अच्छी लगे उसके द्वारा आप अपने विचार प्रकट करें। 
भवदीय : मो.क.गांधी 
रेल में : 1-10-39 " 
मित्रों ! 
कहाँ इतनी सहिष्णुता और कहाँ आज का दौर जहां खान पान को लेकर लोग एक दूजे की जान पत्थरो से मार-मार कर ले लेते हैं। 
बापू तुम फिर आना मेरे देश ! 

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रविवार, जून 12, 2016

शक्ति का बिखराव


एक बार कबूतरों का झुण्ड, बहेलिया के बनाये जाल में फंस गया। सारे कबूतरों ने मिलकर फैसला किया और जाल सहित उड़ गये "एकता की शक्ति" की ये कहानी आपने यहाँ तक पढ़ी है .... इसके आगे क्या हुआ वो आज प्रस्तुत है : - 

बहेलिया उड़ रहे जाल के पीछे पीछे भाग रहा था। एक सज्जन मिले और पूछा क्यों बहेलिये तुझे पता नही कि "एकता में शक्ति "होती है तो फिर क्यों अब पीछा कर रहा है ? 
बहेलिया बोला "आप को शायद पता नही कि शक्तियों का अहंकार खतरनाक होता है जहां जितनी ज्यादा शक्तियां होती है, उनके बिखरने के अवसर भी उतने ही ज्यादा होते है"। 
सज्जन कुछ समझे नही ! बहेलिया बोला आप भी मेरे साथ आइये। सज्जन भी उसके साथ हो लिए। 
उड़ते उड़ते कबूतरों ने उतरने के बारे में सोचा ... एक नौजवान कबूतर जिसकी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं थी, उसने कहा किसी खेत में उतरा जाये ... वहां इस जाल को कटवाएँगे और दाने भी खायेंगे। 
एक समाजवादी टाइप के कबूतर ने तुरंत विरोध किया कि गरीब किसानो का हक़ हमने बहुत मारा...अब और नही !! 
एक दलित कबूतर ने कहा, जहाँ भी उतरे पहले मुझे दाना देना और जाल से पहले मैं निकलूंगा क्योकि इस जाल को उड़ाने में सबसे ज्यादा मेहनत मैंने की थी। 
दल के सबसे बुजुर्ग कबूतर ने कहा, मै सबसे बड़ा हूँ और इस जाल को उड़ाने का प्लान और नेतृत्व मेरा था,, अत: मेरी बात सबको माननी पड़ेगी। 
एक तिलक वाले कबूतर ने कहा किसी मंदिर पर उतरा जाए, बंसी वाले भगवन की कृपा से खाने को भी मिलेगा और जाल भी कट जायेंगे। - तुरंत ही टोपी वाले कबूतर ने विरोध किया, उतरेंगे तो सिर्फ किसी मस्जिद पर ही। 
अंत में सभी कबूतर एक दुसरे को धमकी देने लगे कि मैंने उड़ना बंद किया तो कोई नहीं उड़ नही पायेगा, क्योकि सिर्फ मेरे दम पर ही ये जाल उड़ रहा है और सभी ने धीरे-धीरे करके उड़ना बंद कर दिया। 
परिणाम क्या हुआ कि अंत में वो सभी धरती पर आ गये और बहेलिया ने आकर उनको जाल सहित पकड़ लिया। 
सज्जन गहरी सोच में पड़ गए .... बहेलिया बोला क्या सोच रहे है महाराज !! सज्जन बोले "मै ये सोच रहा हूँ कि ऐसी ही गलती तो हम सब भी इस समाज में रहते हुए कर रहे है। 
बहेलिया ने पूछा - कैसे ? 
सज्जन बोले - हर व्यक्ति शुरू में समाज में अच्छा बदलाव लाने की चाह रखते हुए काम शुरू करता है, पर जब उसे ऐसा लगने लगता है कि उससे ही ये समाज चल रहा है, तो वो चाहता है सभी उसके हिसाब से चलें। तब समस्या की शुरुआत होती है। जैसा इन कबूतरों के दल के साथ हुआ, क्योकि जाल उड़ाने के लिए हर कबूतर के प्रयास जरूरी थे और सिर्फ किसी एक कबूतर से जाल नही उड़ सकता था। 
इसलिए यदि अन्य लोग भी ऐसी नकारात्मक सोच रखेंगे और अपने प्रयास बंद कर देंगे तो समाज में भी गिरावट आएगी। हमें अपने हिस्से के प्रयास को कभी भी बंद नहीं करना चाहिए ! 

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जहाँ बकरियां पेड़ों पर दिखती हैं

ये फोटोशॉप का कमाल नहीं है जी ! 

उत्तरी अफ्रीका का मोरक्को एक ऐसा देश है, जहां बकरियां पेड़ों पर चढ़ जाती हैं। ऐसे दृश्य मोरक्को में अक्सर दिखाई पड़ते हैं, वहां दर्जनों की संख्या में बकरियां पेड़ों पर मौजूद मिलती है। ये कौवों की तरह पेड़ की चोटी पर भी बैठी दिखती है। 


कहते हैं कि तेज ढलानों वाले इलाकों और पहाड़ों पर आते-जाते बकरियां पेड़ों पर चढ़ने के काबिल बनती हैं। बकरियों को खाने की तलाश में पहाड़ों पर जाना पड़ता है। क्योंकि मोरक्को के ज्यादातर इलाके काफी सूखे और रेगिस्तान वाले हैं, इसलिए बकरियों को जमीन पर खाना कम ही मिल पाता हैं। पेड़ पर चढ़ने के पीछे भी पेट भरना ही मुख्य वजह है। 


कम उम्र से ही ऐसा करने की वजह से बकरियां धीरे-धीरे स्किल्ड हो जाती है। यहां आर्गन ट्री नाम का फलों का एक पेड़ पाया जाता है जिस पर बकरियां अक्सर जाती है। एक आर्गन ट्री करीब 8 से 10 मीटर ऊंचा होता है।  


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